चिल्लर काका

– प्रभाकर पाण्डेय “गोपालपुरिया”

जाड़ा के दिन रहे. सूरूज भगवान बरीआई से उगले के कोसिस करत रहने. कोसिस ए से की उगले की बादो एइसने लागे की अब उग रहल बाने. लगभग दिन के 10 बजि गइल रहे तब्बो घाम में कवनो ना गर्मी रहे ना तेजी. अउर का गर्मी, एइसन लागे की सूरूज भगवान बेमन से उगल बाने अउर आपन घाम देहले नइखन चाहत.

चिल्लराइन काकी अपनी मड़ई की बाहर एगो तरई बिछा के बइठल रहली. उनकरी बगलिए में उनकर बड़की लइकीनी गुड्डियो गाँती बाँधि के बइठल रहे. चिल्लराइन काकी मोनिया बिनत रहली अउर उनकर लइकिनिया एगो बड़हन दउरा बिनत रहे. लगहीं पानी में मूँजी भें के धइल रहे.

हम ओही बेरा गोबरे के खांची मुड़ी पर उठवले गोहरउरी की ओर जात रहनी. हमके देखते चिल्लराइन काकी कहली की ए बाबू गोहरउरी में तनि गोबरा धऽ के एहीमुकी लवटिहऽ. हमरा तोहसे कुछ काम बा. हम ठीक बा कहि के आगे बढ़ि गइनी.

गोहरउरी में गोबर धइले की बाद हम खाँची के गोहरउरिए में माई की लगे छोड़ि के नलका पर जा के हाथ-गोर धोवनी अउर चिल्लर काका की दुआरे पर आ गइनी. हम के देखते चिल्लर काका के गुड्डिया दउरा बिनल छोड़ि के उठलि अउर मड़ई में जा के एगो बिठई ले के आइल. उ बिठई हमके देत कहलसि, “ए भइया बइठऽ.” हम ओकरी हाथे में से बिठई ले लेहनी अउर चिल्लराइन काकी की लगवें उ बिठई ध के ओही पर बइठि गइनीं.

चिल्लराइन काकी हम से कहली, “ए बाबू, सबेरवें दसगो उँखि खेत्ते में से तुरवा के मँगवनी हँ अउर रमेसर बाबा की कोल्हुआड़े से पेरवा के मँगवनी हँ. आजु गुड्डिया कहत रहली ह कि रसिआव अउर पूड़ी बनी.” हम कहनी, “काकी, अगर रसिआव बनल होखे त तनि एक कटोरा हमहुँ के मँगवावऽ.” हमरी एतना कहते गुड़्डिया उठलि अउर मँड़ई में जा के बटुला में से एगो बड़हन कटोरा में रसिआव निकालि के ले आके हमके देहलसि. रसिआव खाते-खाते हमरी दिमागे में चिल्लर काका घूमि गइने.

चिल्लर काका के असली नाव परमेश्वर चौधरी रहे पर गाँव के लोग उनसे नाता की हिसाब से केहू परमेसर भाई कहे त केहू परमेसर काका अउर केहू परमेसर बाबा. पर हमार बाबा त उनसे उमर में बहुत जेठ रहने अउर उनके परमेसरा कहि के बोलावें.

परमेसर काका के नाव बदलि के कब चिल्लर हो गइल एकरी पीछे गाँव में प्रचलित दुगो कहानी बा. कुछ लोग त कहेला की चिल्लर काका जब 12-14 बरिस के रहने त नहाँ-ओहाँ नाहीं अउर बराबर मइलाहे कपड़ा पहिनें. कुछ लोग त इहाँ ले कहेला की चिल्लर काका जाड़े की दिन में खालि खिचड़ी के नहान नहाँ. अउरी उहो उ नदी में ढुकि के खालि एक्के डुबकी लगावें अउर फटाक से निकलि के कपड़ा बदलि लें. आगे लोग कहेला की जब चिल्लर काका गाइ-ओई चरावे जाँ त घामे बइठि के अपनी बसात बंडी अउर कुरता में से चिल्लर नोचिं-नोचिं के फेंके. धीरे-धीरे कुछ लोग उनके चिल्लर-चिल्लर कही के रिगावे लागल अउर बाद में त सब लोगवे उनके चिल्लर नाव से ही संबोधन करे लागल पर चिल्लर काका के ए नाव से कवनो दुख ना पहुँचे.

खैर अब आईं उनकी नाव बदलले की पीछे के दूसरका खिस्सा सुनि लेहल जाव. चिल्लर काका हमरी गाँव में चउधरी खनदान के अधियरा हउअन. चिल्लर काका के बाबूजी भी अकेले रहने. चिल्लर काका के बाबा दू भाई रहे लोग पर ओमे से एक जाने सधुआ गइने अउर सादिए ना कइने. ए तरे से चिल्लर काका की लगे बपौती में मिलल बहुत खेती बारी बा. चिल्लर काका अपना बहुत सारा खेत सुरुवे से गाँववालन के बँटाई देत चलि अइने. इनकरी लगे जे केहू भी आवे अउर कहे की हमके आलू बोवे के थोड़े खेत चाहीं, केहू ऊँखी बोए खातिर बँटाई माँगे त इ केहू के ना नाहीं करें. ऊँखी के इनकर पैदवार गाँव का जवार में सबसे अधिका होखे. जबसे मिल चाहें खड़सारि चलल सुरु होखे इ रोजो आपन एक टायर उँखि छिलवा के मिले चाहें खड़सारि पर गिरवावें. इनकी लगे पइसा के कबो कमी ना रहे पर बहुत मितव्ययी रहने. गाँव में कहू के 100-50 रूपया के ताक लागे त इनसे माँगि के ले जा अउर अगर केहू के 20, 50, 100 रूपया के चिल्लर करावे के होखे त इनहीं की लगे आवें. इहाँ तक की छोट-मोट वेयापारी भी इनसे रेजगारी ले जाकुलिं. चूकि लोग इनकरी लगे पइसा चिल्लर करावे आवे एहू से धीरे-धीरे इ चिल्लर नाव से परसिध हो गइने.

इहे कुलि सोंचत में हम एक कटोरा रसिआव खा के एक लोटा पानी पिएले की बाद चिल्लराइन काकी से कहनी, “काकी, बतावऽ, काहे खातिर बोलवलु हऽ.” काकी उदासे मन से कहली, “बाबू, तोहरा त पते बा की तोहार काका के घर छोड़ि के गइले दु-तीन बरिस हो गइल. हमरा जहाँ-जहाँ खोजे के रहल खोजनी पर उनकर कवनो पता ना चलल. तोहरा त इहो मालूम बा की गाँव की लोग की चक्कर में आके हम खुदे अपनी पैर पर कुल्हाड़ी मारि लेहनी.” एतना कहले की बाद काकी भोंकार पारि के लगली रोवे.

अब हमरा दु साल पहिले के उ नजारा इयाद आ गइल जब एक दिन चिल्लर काका बिना बतवले घर छोड़ि के चलि गइने अउर जब एक-आध महीना ले वापस ना अइने त ई बात गाँव में आगी की तरे फइलि गइल की बहुत पहिलहीं से उनकरा एगो मेहरारू से चक्कर चलत रहल ह अउर सायद ओही की साथे भागि गइने.

हमरी देखले में चिल्लर काका बहुत सीधा-साधा रहने. उनकी लगे पइसा के कवनो कमी ना रहे पर उ कबो घमंडिया ना. सबके मदद करे खातिर हमेसा तइयार रहें. पर अपना के रहे खातिर ना कबो एगो निमन घर बनववने ना ही निमन कपड़े पहिने. ए वजह से उनकरा के गाँव के लोग बुरबकवा भी कहे अउर चिल्लराइन काकी के चढ़ा के उनसे बराबर झगड़ों करा दे. पर चिल्लर काका कबो केहू के तेज ना बोलें ना केहू के बुराई करें.

काकी तनि आपन रोवल कम कइली अउर रुआँसे मन से कहल सुरु कइली, “बाबू, तोहार काका हीरा रहने हँ हीरा. अब उ नइखन त उनकर मोल हमरा समझि में आवता. हम अच्छी तरे जानतानि की उ कवनो दूसर-विआह-उआह नइखन कइले. उ त संन्यासी रहने हँ संन्यासी. हमसे अधिका उनके के चिन्हि पाई. हमेसा कहल करिहें की जब भगवान पइसा देले बाने त एके अच्छा काम में खरच करे के चाहीं.” एकरी बाद काकी अपनी मँड़ई में जा के पलानी में खोंसल एगो चिट्ठी निकालि के ले अइली अउर हम के दे देहली. जब उ चिट्ठी हम खोलि के पढ़े लगनी त हमार उत्सुकता त बढ़ही लागल साथे-साथे जवन हमरा मालूम होखे लागल ओसे त हमार मन भी रोवे लागल.

उ चिठ्ठी हमरी गाँव कि बगल की गाँव के एगो रमायन नाव की मनई के भेजल रहे. उ रमायन नाव के आदमी कोलकता में चटकल में काम करत रहने. उ आदमी ओ चिट्ठी में साफ लिखले रहने की चिल्लर काका कोलकते में बाने अउर संन्यासी की रूप में बाने. उ इहाँ गरीबन कुल्हि की कल्यान खातिर कईगो संस्था चला रहल बाने. ओ चिट्ठी में इहो साफ लिखल रहे की चिल्लर काका गरीब अउर अनाथ बच्चन खातिर कईगो स्कूल, अनाथालय आदि भी बनवले बाने. रमायन आगे इहो लिखले रहने की एकबेर उ अपनी बाबूजी के तीरथ करावे लेके हरिद्वार गइल रहने अउर हरिद्वार की जवने धरमसाला में ठहरल रहने उ चिल्लर काका द्वारा ही बनवावल बा.

ओ चिठ्ठी के हम एकबेर ना दु-तीन बेर पढ़नी. पढ़ले की बाद ओ चिठ्ठी के हम काकी के दे देहनी. चिठ्ठी लेहले की बाद काकी कहली, “ए बाबू हमरी नइहर के आदमी त हमरी भइया से इहो बतावत रहे की एकदिन उ तहरी काका के अजोध्या में भी देखले रहे. पर उनकरी आगे-पाछे एतना भीड़ रहे की उ उनसे मिल ना पवलसि.”

अब हमरी मन में चिल्लर काका के असली चेहरा घूमे लागल. हम पूरा तरे से समझि गइल रहनी की काका काहें अपने मितव्ययिता से रहें अउर अब हमरा इहो बुझा गइल रहे की उ अपनी पइसा से गुलछर्रा ना उड़ावे, उ त ओ पइसन से जन-कल्यान के काम करें. एही वजह से हमरा इयादि बा कि उ सालि में 2-3 बेर तीरथ यात्रा के बहाना क के घर से 1-1 महीना बाहरे रहें. अब हमरा सबकुछ समझि में आ गइल रहे.

हम इहे कुल सोंचत रहनी तबलेकहीं गुड्डिया कहलसि, “ए भइया. हम चाहतानी की तूँ एकबेर माई के लेके कोलकता जा अउर बाबूजी से भेंट करा दऽ. हमरा मालूम बा की हमार बाबूजी माई के माफ क के फेन से हमनीजान के अपना लिहें.” हमरी आँखि में से आँसू टपकि गइल अउर हम कहनी, “जरूर गुड्डी, जरूर. हम चिल्लर काका के जरूर घरे वापस ले आइबि.”


हिंदी अधिकारी
सीडैक, पुणे
ई-पत्र- prabhakargopalpuriya@gmail.com
मोबाइल- 09022127182/09892448922


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