– डा॰अशोक द्विवेदी
कतना हो जाला मनसायन
सुधि का सुगंध से
गमक उठेला जब बतास
छान्ही पर एकदम
ओलरि आवेला अकास
सचहूँ कतना हो जाला मनसायन
तहरा सुधि से
हमरा भीतर कोना-अँतरा ले
एक-ब-एक भर उठेला उजास!
तहार सुधि अवते
लहरे लागेला ताल
फूल, टूसा-कोंढ़ी से ले के रंग
सँवरे ले कल्पना, बन के तितिली
दउरेले पँखुरी-पँखुरी
कहि जाला गुपचुप सनेस कान में भँवरा
चिहा के ताकेली स आँखि
कवनो पतई त खरको
तहार आहट त मिलो!
तहार सुधि –
फुनुगी से लटकल लालमुनि चिरई
झूलि-झूलि उड़ि जाले
हिलत छोड़ कंछी डाढ़ि के!
जियरा जब केहूं से मिले के आस में धधक उठेला अउर ओह धधक में जवन दरद होला, ओकरा के शब्दन में बान्हल आसान नइखे. बाकिर डॉ.साहब जवना गहराई से आपन प्रिय के इंतजार के विरह वेदना के अपना शब्दन के माध्यम से उकेरले बानी, ओकर जेतना बड़ाई कइल जाव कमे बा.