– अशोक द्विवेदी
फागुन बाट ना जोहे, बेरा प’ खुद हाजिर हो जाला. रउवा रुचेभा ना रुचे, ऊ गुदरवला से बाज ना आवे. एही से फगुवा अनंग आ रंग के त्यौहार कहाला. राग-रंग के ई उत्सव, बसन्त से सम्मत (संवत् भा होलिका दहन) आ होली से बुढ़वा मंगर ले चलेला. एह बीचे राग रंग के सुरलहरी का गूँज-अनुगूँज से’भारतीय मन (खास कर भोजपुरिया मन मिजाज) में हिलोर उठत रहेला.
झूमर का धुन पर बान्हल, फाग आ होरी गीतन के दादरा आ कँहरवा के ठेका पर गावत देखि सुनि के बुढ़वनों के मन बउरा जाला. अगर ना बउराइल तs बूझ लीं, ओकरा भीतर क जीवन रस सुखा गइल, ऊ काठ हो गइल. आज स्व. भोलानाथ गहमरी क सुधि आवत बा, उनकर गीत हवा में सुरसुरा रहल बा ….
रँग फगुनी बसन्ती रँगा गइले राम/
धरती -गगन रस बरिसेला !
छलके गुलबवा क लाली गगरिया /
पी-पी के मन बउरा गइले राम /
धरती गगन रस बरिसेला !
चन्दा के दरपन में पिउ के सुरतिया/
बरबस नयन में समा गइले राम /
धरती-गगन रस बरिसेला !
अमवाँ क मोजरा से गंध मदन के /
घर अँगना पवन ढरका गइले राम /
धरती गगन रस बरिसेला !!
फागुन हइये हsअइसन पहुना कि सगरी बरिजना (वर्जना) तूरि देला. धसोरि के मरजादा क देवाल भहरा देला. सगरी कुंठा बहरियावे क अचूक अवसर ई फगुवे देला. लोगन के कलेन्डर से बहरा निकलवावे खातिर फागुन सनेह क सगुन जगावेला. भोलाजी अपना गीत में, ईहे सनेह सगुन जगावत बाड़न…
फागुन सगुन सनेहिया जगावे,
तन मन सुधि बिसरावे !
रंग बिरंग किरिन रँग घोरे
अँग अँग धरती अकसवा के बोरे
भरि भरि अंक लगावे;
फागुन सगुन सनेहिया जगावे!
ई सगरी रंग राग क परोसा रउरे खातिर बा. अब त कलेन्डर से बहरा निकलि आईं. आईं ‘भ्रमरानन्द’,बन के गावल जाव….
‘भरि भरि मारे पिचकरिया हो /रस बरिसे फगुनवाँ!!’
0 Comments