पिछला हफ्ता के तिकवत तिवई का बाद आजु सोचत बानी कि अकसर आ अकसरुआ के बाति कर लीं. अब अकसरुआ त उहे नू कहाई जे अकसर होखे. बाकिर अकसर त ओकरो के कहल जाला जवन आये दिन होत रहे, बार बार होत रहे. एगो दोसर अकसर ऊ होला से अपना अपना घर के अकेला होखे आ एही अकसर से अकसरुआ बनल. अकसरुआ घर परिवार के अकेले आदमी के कहल जाला. ई घर अगर बड़ होके देश हो जाव त ओकरो अकसरुआ होलें जे आपन राह अलग बनावेले आ ओहपर अकसरुआ बन के चलेले. अलग बाति बा कि अकसर त ना बाकिर कई बेर ओह अकसरुआ का पीछे पूरा समाज चल देला आ तब ऊ अकसरुआ आदमी अगुआ बनि जाला.
अगुआ माने जे आगा आगा चले. अकसरआ से अगुआ बने के एह सफर में समाज में बदलाव आवे लागेला. कुछ लोग ओह अगुआ के अकसरुआ बनावे का कोशिशो में लाग जाला. शायद एही से कुछ लोग अगुआ बनल ना चाहे. लेकिन अगुआ के इन्तजार सभे करेला कि अगुआ ओकरो दुआर पर आवे आ उनुका पूत खातिर कवनो बढ़िया रिश्ता बना जाव. हमनी का समाज में अगुआ ओहू आदमी के कहल जाला जे शादी बियाह के रिश्ता तय करावेला. ओकरा कई बेर कनियवो के भाई आ दुलहवो के भाई बने पड़ेला. एह दुधारी तलवार पर चले वाला अगुआ से कुछ लोग नाराजो हो जाले अगर ऊ ओह लोग का हित पर वार करत होखे. लेकिन अकसरुआ से अगुआ बनल आदमी एह सब से बेपरवाह रहेला. काहे कि ऊ जानेला कि एगो अन्ना के विरोधी हजारे होलन. अबही जवन चुनाव परिणाम आवे वाला बा उहो बताई कि अपना राज्य के अकसरुआ ममता के आ देश के अकसरुआ अन्ना के बारे में लोग के का विचार बनल. सभे तिकवत बा कि का रिजल्ट आई.
जब बतकुच्चन हो रहल बा..त अब हमरो रोकात नइखे…काँहे कि इ त परंपरा ह…बतकुच्चन कइल….बिना बात के बात अउर बात पर बात, त बात के अब हम आगे ना बढ़ाइबि..पर आपन बात रउआँ सब के जरूर सुनाइबि…पर अब हम शब्दन पर आ जाइबि…वइसे आजु ले हमहुँ बहुत कोसिस कइनी शब्दन के जाने के पर मैं बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठि…ए वजह से गहराई में ना उतरि पवनि….खैर आईं हमहुँ आदमी हईं..अउर रउओं आदमी हईं…त तनि हम आदमी पर बतकुच्चन क लीं…
कवनो आदमी ही आदमी के उत्पत्ति अरबी के शब्द आदम से बतवले बा अउर आदमी, आदमी के परयोग बाबा आदम की जबाना से करत आ रहल बा।
उहे आदमी (व्यक्ति, मानव) कबो आदमी (मर्द, पुरुष, नर) अउर अउरत में फरक बतावेला अउर उहे आदमी बिआहे की बाद अपनी मेहरारू के आदमी (पति, मर्द, शौहर, खसम, नाथ, कांत) बन जाला। उहे आदमी कबो सेठ, अधिकारी बनिके आदमियन (कर्मचारी, कामगार) से काम करावेला अउर उहे आदमी कबो मालिक बनिके अपनी आदमी (नौकर, दास) से जूठ भी मँजवावेला। उहे आदमी खुद ही आदमी (सभ्य, सुशील) नाहीं बनल चाहेला अउर ना दूसरे आदमी के आदमी (सभ्य, सुशील) बने देवल चाहेला अउर अपनी आदमियत (आदमीयत भी) के भूल के आदमखोर भी बन जाला।
आदमी, आदमी से अत्यधिक इर्सा राखेला एकर सबसे बड़ उदाहरन इहे बा कि आदमी कवनो उपसर्ग चाहें प्रत्यय (हीन, पूर्ण, सु, कु इत्यादि) के आदमी के पास भटके ना देला, जवने की कारण आज भी शब्दकोश में आदमी के बाद खाली आदमियत ही लउकेला, आदमी से कवनो अउरी शबद ना बनेला..वइसे बड़-छोट लगाके बड़आदमी अउर छोटआदमी भी बना लेहल गइल बा अउर जबाना उल्टा हो गइल बा…जे छोट काम करे उहे बड़आदमी कहाता अउर पूजाता..इ सब सब्दन के ना भाई..भगवान के भी ना…इ त आदमी के माया ह…….
हम त इहे कहबि कि भगवान आदमी के आदमियत खातिर बनवले बाने, ए बात के समझीं अउर ऊँच-नीच, घृणा आदि के तेयागि के आपस में प्रेम-भाव से रहीं..बस एही में (आदमी के भलाई बा)।
जय आदमी।।
धन्यवाद प्रभाकर जी,
आदमी पर राउर बतकुच्चन बहुते नीक लागल.
सप्रेम,
राउर,
ओम