बांसगांव की मुनमुन – 5

( दयानन्द पाण्डेय के बहुचर्चित उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद )

धारावाहिक कड़ी के पंचवा परोस

( पिछलका कड़ी अगर ना पढ़ले होखीं त पहिले ओकरा के पढ़ लीं.)

जिनिगी फेरु अपना पुरनका ढर्रा पर लवटिए ना आइल, बलुक कहीं त मुनक्का राय के मुश्किल तनिका अउरी बढ़ गइल. धीरज ट्रेनिंग पर चल गइल आ ओकर मेहरारु अपना लईका के लेके नइहर चलि आइल. धीरज से मिलत नियमित अउर सुनिश्चित प्रसाद त पहिलहीं खतम हो गइल रहुवे. अब तरुण अउर राहुल के शहर में पढ़ाई, रहे-खाए आ किराया के खरचो भेजे के पड़त रहुवे. एहसे सब कुछ का बादो मुनक्का राय गँवे-गँवे करज में डूबल जात रहलें. गिरधारी राय ई सब देखत रहलन आ लोगन से खुसफुसाइलो करसु, ‘घर में भूजल भांग ना, दुअरा हरि कीर्तन !’

अब अलगा बात इहो रहुवे कि गिरधारिओ राय किहां के हालातो अइसने होखल जात रहुवे. ओमई के प्रैक्टिस लड़खड़ा गइल रहुवे. बाप रामबली राय के राखल पइसा कतना दिन ले चलीत. आधा मकान किराया पर उठा दिहल गइल रहुवे. शहरो वाला मकान के दू तिहाई भाड़ा लगा दीहल गइल रहे. किराया ना आवत रहीत त घर के खरचो चलावल मुश्किले रहुवे. बड़का बेटा पियक्कड़ निकलइए गइल रहुवे. आ तिसरको बेटा बिना बिआहे कइले एगो लड़की का साथे रहत रहुवे. जवन जाति के तेली रहल. एगो बेटी बे-बिआहल बाकी पड़ल रहुवे परिवार में.

ओने धीरज के ट्रेनिंग पूरा हो गइल त ओकरा एस.डी.एम. के तैनाती मिल गइल त एने तिसरका भाई तरुणो एगो बैंक में पी.ओ. हो गइल. मुनक्का राय के घर एक बेरु फेरु खुशियन से छलछलाए लागल रहुवे. एक दिन रमेश के मेहरारू रमेश से पूछलसि, ‘रउरो त एक बेर बैंक में चुनाइल रहुवीं ?’

‘चुनाइल त रहनी, बाकिर बाबूजी जाए कहाँ दिहलन ?’ ऊ लाचार भावे बोललसि, ‘चल गइल रहतींं त ई गोला के गलीज कइसे देखतीं ?’

‘अतना पितृभक्तिओ ठीक ना रहल.’ ऊ बोललसि, ‘नरक में डाल दिहनी हमनी के.’

‘ई ओमई के पट्टीदारी में सब हो गइल. बाबू जी हमरा के वकील बनववलन ओमई के रगड़े ला, हमहीं रगड़ा गइनी.’

‘रउरा अब फेरु इम्तिहान ना दे सकीं ?’

‘कवना के ?’

‘पी.सी.एस. के, बैंक के?’

‘एह उमिर मेें ?’ रमेश बोलललसि, ‘अरे, अब हम ओवर एज हो गइल बानी. तूं त पढ़ल-लिखल हऊ, अतना त समुझिए सकेलू.’

रमेश के मेहरारु चुपा गइल. बाकिर रमेश का मन मेंं मेहरारु के सवाल घुमड़त रह गइल. ऊ सोचलसि कि हो सकेला कि ऊ घर अउर नौकरी दूनू नइखीं साध पावत. ऊ अब एगो जूनियर हाई स्कूल में पढ़ावे लागल रहुवी. गोला से तनिका दूर जाए के पड़त रहुवे. पढ़वला से बेसी ऊ आवे-जाए में थाक जात रहली. आ रमेश घरो में मांगिए के पानी पिए, आपना से गिलासो ना उठावत रहुवे. से घरो के बोझ ऊपर से रहल, ऊ दिन पर दिन दुबराइलो जात रही. रमेश के प्रैक्टिसो अब लगभग पेनी ध लिहले रहुवे. कई बेर त ऊ कचहरी जाहूं से कतरा जाव. मेहरारु का साथे सूतलो में ऊ हारिए जाव. चाहियो के ऊ कुछ कर ना पावे. एक दिन ऊ लेटले-लेटल मेहरारु से कहबो कइलसि, ‘लागत बा हम अब नपुंसक हो गइल बानी.’

मेहरारू कसमसा के रहि गइल बाकिर आँखिन का इशारा से कहलसि, ‘अइसन मत कहीं.’ बाकिर थोड़ देर बाद जब ऊ फेरु इहे बाति दोहरवलसि त मेहरारु तोस देत कहलसि, ‘अइसन मत कहीं,’ ऊ फुसफुसाइल, ‘अब त हमरो मन ना करेला.’ का पइसा के तंगी आ बेकारी आदमी के अइसन बना देले ? नपुंसक बना देले ? रमेश मन ही मन अपने से पूछत रहुवे.

दिन बीतत रहल. अब घर में सभका कपार पर रीता के बिआह के चिंता सवार रहुवे. हालां कि रीता घर में कहबो कइलसि कि, ‘हमहूं भइए लोग का तरह नौकरी वाला इम्तिहान दीहल चाहत बानी.’ ऊ जोड़बो कइलसि, ‘अम्मां, हमहूं पी.सी.एस. बनल चाहत बानी.’ धीरज भइया के मान सम्मान देखि के ओकरो मन में ई इच्छा जागल रहुवे, बाकिर माई ओकर मनसा पर पानी फेरत कहलसि, ‘जहां जइबू ओहिजे जा के पी.सी.एस. बनीह. एहिजा अब समय कहाँ बा. अबहीं मुनमुनवो बिया. पता ना तब का होखी ? समय हरमेश एके जइसन ना रहे.’

रीता चुपा गइल, ओने रमेशो चुपाइले रहुवे. बाकिर ओकर मन अपना नपुंसकता से आजिज आ गइल रहुवे. लगातार तरकीब पर तरकीब सोचल करे. आखिर एक दिन मेहरारु से कहलसि, ‘तूं ठीके कहत रहलू.’

‘का ?’

‘कि हमरा इम्तिहान देबे के चाहीं फेरु.’

‘बाकिर रउआ त कहत रहनी कि ओवर एज हो गइल बानी.’

‘ना. अबहीं जुडिशियरी के इम्तिहान देबे के उमिर बाँचल बा.’

‘ओह!’ ऊ रमेश का गरदन पर लटकि के झूम गइल. बोललसि, ‘एहले नीमन बाति का होखी. आ हम बताईं रउआ करिओ लेब.’ अतना कहि के ऊ लपक के रमेश का गोड़ पर गिर गइल. बोलल, ‘हम त हमेशा से रउरा साथे रहल बानी, आ हमेशा रहबो करब. रउरा अब घर समाज सभकर चिंता हमरा पर छोड़ीं आ इम्तिहान के तइयारी में लाग जाईं.’

‘दू तीन बरीस लाग सकेला. पढ़ाई-लिखाई से नाता छूटल जमाना हो गइल बा. दोहरावहीं में साल बीत जाई.’ ऊ बोलल, ‘आ पइसो लागी कापी, किताब, कोचिंग में से अलगा !’

‘हमार सगरी गहना बेच दीं बाकिर रउआ तइयारी करीं!’ ऊ सुबुकत कहलसि, ‘ई अपमान आ तंगी अब अउर बरदाश्त नइखे होखत !’

‘ठीक बा. हमरो से अब भड़ुवागिरी अउर दलाली वाली एह वकालत के तमाशा अउर नइखे हो पावत. भर जिनिगी निठल्ला बनल रहला से नीक रही कि एक आग में कूदिए जाईं. देखीं का होखत बा !’

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