लोक कवि अब गाते नहीं – १५

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

चउदहवाँ कड़ी में रउरा पढ़ले रहीं
कि गोपाल पंडित के बेटी के बिआह खातिर लोक कवि रुपिया त दे अइलन बाकिर बिआह ठीक ना हो पावल. सिरिफ पइसा भर से केहु के शादी ब्याह तय हो जाइत त फेर का बाति रहीत ? अब आगे पढ़ीं…


फेर गांव में एगो विलेज बैरिस्टर रहले. नाम रहे गणेश तिवारी. अइसन बाति जहां नाहियो पँहुचल रहो गणेश तिवारी पूरा चोखा चटनी लगा के चहुँपावे के पूरा हुनर राखत रहले. ना सिरिफ बतिये चहुँपावे के बलुक बिना सुई, बिना तलवार, बिना छुरी, बिना धार ऊ केहुओ के मूड़ी काट सकत रहले, ओकरा के जड़मूल से बरबाद कर सकत रहले. आ अइसे कि कटे वाला तड़पियो ना सके, बरबाद होखे वाला उफ तकले ना कर सके. ऊ कहसु, ‘वकील लोग वइसहीं थोड़े केहु के फांसी लगवा देला.’ वकीलन का गरदन पर बान्हल फीता देखावत कहसु, ‘अरे, पहले गटई में खुदे फंसरी बांन्हेले फेर फांसी चढ़वावेले !’ फेर गणेश तिवारी बियाह काटे में त अतना पारंगत रहले जतना केहु के प्राण लेबे में यमराज. ऊ कवनो “दुल्हा” के मिर्गी, दमा, टी.वी., जुआरी, शराबी वगैरह वगैरह गुण से विभूषित कर सकत रहले.अइसहीं ऊ कवनो “कन्या” के, भलही ओकर अबहीं महीनो ना शुरू भइल होखे त का, दू चार बेर पेट गिरवा सकत रहले. एह निरापद भाव, एह तटस्थता, एह कुशलता अउर एह निपुणता के साथ कि भले ऊ राउरे बेटी काहे ना होखो, एक बेर त रउरो मान लेब. एह मामिला में उनुकर दू चार गो ना, सैकड़न किस्सा गांव जवार में किंवदंती बन चलल रहे. एतना कि जइसे कवनो शुभ काम शुरू करे का पहिले लोग ‘ॐ गणेशाय नमः’ कर के श्री गणेश करेला जेहसे कि कवनो विघ्न बाधा ना पड़े ठीक वइसही एहीजा लोग शादी बिआह के लगन निकलवावे खातिर पंडित आ उनुकर पंचांग बाद में देखे, पहिले ई देखे कि गणेश तिवारी कवना तिथि के गांव में ना होखीहें !

तबहियो ना जाने लोग के दुर्भाग्य होखे कि गणेश तिवारी के गांव में आवे के दुर्निवार संयोग, ऊ अचके में ऐन मौका पर प्रकट हो जासु. अइसे कि लोग के दिल धकधका जाव. त गणेश तिवारी के दुर्निवार संयोग भुल्लन तिवारी के बेटा गोपला के बेटीओ के शादी काटे में खादी के जाकेट पहिरले, टोपी लगवले कूद पड़ल. ख़ास करके तब उनुकर नथुना अउरी फड़फड़ा उठल जब उनुका पता चलल कि लोक कविया एहमें पइसा कौड़ी खरचा करत बा. लोक कविया के ऊ आपन चेला मानत रहले. एह लिहाज से कि गणेश तिवारी अपनहुँ गवईया रहले. एगो कुशल गवईया. अउर चूंकि गांव में ऊ सवर्ण रहले से श्रेष्ठो रहले. आ उमिरो में लोक कवि से बड़का रहले. लेकिन चूंकि जाति से ब्राह्मण रहलें से शुरु में ऊ गांवे-गांव, गलीए-गली घूम-घूम के ना गा पवलें. चुनावी मीटिंगो में ना जा पवले गाना गावे. जबकि लोक कवि खातिर अइसन कवनो पाबंदी ना पहिले रहे, ना अब रहुवे. अउर अब त अइसन पाबंदी गणेशो तिवारी तूड़ दिहले रहुवन. रामलीला आ कीर्तन में गावत-बजावत अब ऊ ठाकुरन, ब्राह्मणन का बिआहो में महफिल सजावे लागल रहले. बाकायदा सट्टा लिखवा के. बाकिर बहुते बाद में. एतना कि जिला जवार से बहरा केहु उनुका के जानतो ना रहे. तब जबकि एहु उमिर में भगवान उनुका गला में सुर के मिठास, कशिश आ गुण बइठा रखले रहले. लोक कवि का तरह गणेश तिवारी का लगे कवनो आर्केस्ट्रा पार्टी ना रहुवे, ना ही साजिंदन के भारी भरकम बेड़ा. ऊ त बस खुद हारमोनियम बजावसु आ ठेका लगावे खातिर एगो ढोलकहिया साथे राखसु. उहो ब्राह्मणे रहल. ऊ ढोलक बजावे आ बीच-बीच में गणेश तिवारी के ‘रेस्ट’ देबे का गरज से लतीफागोईओ करे. जवन अधिकतर नानवेज लतीफा होखत रहे धुर गंवई स्टाइल के. लेकिन ई लतीफा सीधे-सीधे अश्लीलता छूवे का बजाय सिरिफ संकेत भर देव से ‘ब्राह्मण समाज’ में ‘खप-पच’ जासु. जइसे कि एगो लतीफा ऊ अकसर सुनावल करसु, ‘बलभद्दर तिवारी बहुते मजाकिया रहले. बाकलिर ऊ अपना छोटका साला से कबहियो मजाक ना करत रहले. छोटका साला के ई शिकायत हरदम बनल रहत रहे कि, ‘जीजा हमरा से मजाक काहे ना करीं ?’ बाकिर जीजाजी अकसर महटिया जासु. बाकिर जब ई ओरहन ढेरे बढ़ि गइल त एक बेर रात खाँ खाए बेरा बलभद्दर तिवारी उ ओरहन खतम करा देबे के ठान लिहले. उनुकर दुआर बहुते बड़हन रहे आ सामने एगो इनारो रहुवे. इनारे का लगे ऊ मरीचा रोप रखले रहले. से खाये से पहिले ऊ छोटका साला के बतवले कि, ‘एगो बड़की समस्या बा एह मरीचा के रखवाली.’
‘काहे ?’ साला सवाल उठवलसि.
‘काहे कि एगो औरत परिकल बिया. जइसहीं हम राति खाँ खाये जाइलें उउ मरीचा तूड़े चहुँप जाले.’
‘ई त बड़ा गड़बड़ बा.’ साला बोललसि.
‘बाकिर आजु मरीचा बाँच सकेला आ तू जे साथ दे द त ओह औरतो के पकड़ल जा सकेला.’
‘कइसे भला?’
‘उ एइसे कि हमनी का आजु बारी-बारी से खाईं.’ बलभद्दर तिवारी बोललन, ‘पहिले तू खा लीहऽ, फेर हम खाये जाएब.’
‘ठीक बा जीजा !’
‘बाकिर ऊ औरत बहुते सुन्दर हियऽ. ओकरा झाँसा में मत आ जइहऽ.’
‘अरे, ना जीजा !’
फेर तय बाति के मुताबिक साला पहिले खा लिहलसि. फेर बलभद्दर तिवारी खाना खाए गइलन. खाते-खात ऊ अपना मेहरारू से कहले कि, ‘तनी टटका हरियर मरीचा इनरा पर से तूड़ ले आवऽ.’
मेहरारू पहिले त भाई का रहला का बहाने टाल मटोल कइली त बलभद्दर तिवारी कहले, ‘पिछुआड़ी ओर से चलि जा.’
मेहरारू मान गइली आ चल दिहली पिछुआड़ी का राहे मरीचा तूड़े. एने उनुकर भाईओ ‘सुंदर’ औरत के पकड़े जा फेराक में अकुताइल बइठल रहले. मरीचा तूड़त औरत के देखते ऊ कूद पड़ले आ ओकरा के कस के पकड़ लिहले. ना सिरिफ पकड़िये लिहले ओह औरत के अंग के जहें तहें दबावे सुघरावहु लगले. दबावत सुघरावत चिल्लइलें, ‘जीजा-जीजा ! पकड़ लिहनी. पकड़ लिहनी चोट्टिन के.’
जीजो आराम से लालटेन लिहले चहुँपले. तबले साले साहब औरत के भरपूर दबा-वबा चुकल रहले. बाकिर लालटेन का अँजोर में अपना बहिन के चिह्नत उनुका पर कई घइला पानी पड़ चुकल रहुवे. बहिनो लजाइल रहली बाकिर अतना जरूर समुझ गइली कि ई सगरी कारस्तानी उनुका मजाकिया पतिदेवे के हवे. ऊ तंज करत कहली, ‘रउरो ई सब का सूझत रहेला ?’ ऊ कहली, ‘भाईयो-बहिन के ना छोड़ीं रउरा ?’
‘कइसे छोड़तीं ?’ बलभद्दर तिवारी कहले, ‘तोहरा भाई के बड़हन शिकायत रहुवे कि रउरा हमरा से कवनो मजाक काहे ना करीं त सोचनी कि सूखल-सूखल का करीं, प्रैक्टिकले मजाक कर दीं. से आजु इनकर शिकायतो दूर कर दिहनी.’ कहत ऊ साला का तरफ मुसुकात मुखातिब भइले, ‘दूर हो गइल नू कि कवनो कोर कसर बाकी रहि गइल बा ? रह गइल होखे त उहो पूरा करवा दीं.’
‘का जीजा!’ कहत साला बाबू ओहिजा से सरक लिहले.

ई लतीफा ढोलक मास्टर ठेंठ भोजपुरी में पूरा ड्रामाई अंदाज में ठोंकसु आ पूरा रस भर-भर के. से लोग अघा जाव. अउर एह अघइले में खइनी ठोंकत गणेश तिवारी के हारमोनियम बाज उठे आ ऊ गावे लागसु, ‘रात अंधियारी मैं कैसे आऊं बालम!’ ऊ सुर में अउरी मिठास घोरसु, ‘सास ननद मोरी जनम की दुश्मन कैसे आऊं बालम !’ फेर ऊ गावसु, ‘चदरिया में दगिया कइसे लागल/ना घरे रहलें बारे बलमुआ, ना देवरा रहै जागल/फेर कइसे दगिया लागल चदरिया में दगिया कइसे लागल!’ ई आ अइसने गाना गा के ऊ लोगन के जइसे दीवाना बना देसु. का पढ़ल-लिखल, का अनपढ़. ऊ फिल्मी गानन के दुतकारबो करसु आ बहुते फरमाइश पर कबो कभार फिल्मीओ गा देसु पूरा भाष्य दे-दे के. जइसे कि जब ऊ “पाकीजा” फिल्म के गाना ‘इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मोरा’ गावसु त एह तोपाइल तकलीफ आ ओकर तंजो अपना वाचन में बांचसु आ कहसु कि, ‘बाकिर लोग एह गाना में ओह औरत के तकलीफ ना देखसु, मजा लेबेलें. तब जब कि ऊ बजजवा, रंगरेजवा आ सिपहिया सभका के घेरा में लेले. ओकर दुपट्टा, दुपट्टा ना ओकर इज्जत हवे.’ उनुका एह वाचन में डूब के एह गाना सुने के रंगे दोसर हो जाउ. अइसही तमाम निर्गुणो ऊ एही ‘ठाठ’ में सुनावसु आ रहि-रहि के जुमलेबाजीओ कसत रहसु. आ आखिर में तमाम क्षेपक कथा अपना गायकी में गूंथत गावसु, ‘अंत में निकला ये परिणाम राम से बड़ा राम का नाम.’ कुछ पौराणिक कथो के ऊ अपना गायकी में ले आवसु. जइसे पांडवन के अज्ञातवास के एगो प्रसंग उठावसु जवना में अर्जुन आ उर्वशी प्रकरण आवे. ओहमें उर्वशी जब अर्जुन से एगो वर मांगत अर्जुन से एगो बेटा मांग बइठस त अर्जुन मान जासु. आ जवन युक्ति निकालस ओकरा के गणेश तिवारी अइसे लयकारी में गावसु, ‘तू जो मेरी मां बन जा, मैं ही तेरा लाल बनूं.’ एह गायकी में ऊ जइसे एह प्रसंग के दृश्य-दर-दृश्य उपस्थित करा देसु त लोग लाजवाब हो जाव. ऊ अपना ‘प्रोग्राम’ में भोजपुरी के तमाम पांरपरिक लोकगीतो के थाती का तरह इस्तेमाल करसु. सोहर, लचारी, सावन, गारी कुछऊ ना छोड़सु आ पूरा ‘पन’ से गावसु. बाते बात में केहु लोक कवि के चर्चा चला देव त ऊ कहसु, ‘अरे ऊ तो हमरा चेला है ! बहुते सिखाया पढ़ाया.’ ऊ जइसे जोड़सु, ‘पहिले बहुते बढ़िया गावत रहे. अतना कि कबो कबो हमरा लागे कि हमरो से बढ़िया मत निकल जाव ! आगे मत निकल जाव, हम ई सोच के जरत रहनी ओकरा से. बाकिर ससुरा छितरा गइल.’ ऊ कहसु, ‘अब त लखनऊ में आर्केस्ट्रा खोल के लौंड़ियन के नचा के कमात खात बा. एह लौड़ियन के नचा के दू चार गो गाना अपनहु गा लेला.’ कहत ओ आह भरे लागसि, ‘बाकिर ससुरा भोजपुरी के बेंच दिहलसि. नेतवन के चाकरी करत नाम आ इनाम कमात बा त लौड़ियन के नचा के रुपिया कमात बा. मोटर गाड़ी से चलेला. हवाई जहाज में उड़ेला. विदेश जाला. माने कुल्ह ई कि बड़का आदमी बन गइल बा. नसीब वाला बा. बाकिर कलाकार अब ना रहि गइल, व्यापारी बन गइल बा. तकलीफ एही बाति के बावे.’ ऊ कहसु, ‘हमार चेला ह से नाक हमरो कटेला.’

लेकिन लोक कवि?

लोक कवि ई य मानसु कि गणेश तिवारी उनुका से बहुते बढ़िया गावेलें आ कि बहुते मीठ गला हवे उनुकर. बाकिर ‘चेला’ के बाति आवते लोक कवि करीब बिदक जासु. कहसु, ‘ब्राह्मण हउवें. पूजनीय हउवें बाकिर हम उनुकर चेला ना हईं. ऊ हमरा के कुछ सिखवले नइखन. उलुटे गांव में रहत रहीं त नान्ह जाति कहिके ‘काटत’ रहले. हँ, ई जरूर रहे कि हमरा के दुई चार गाना जरूर ऊ बतवले जवन हम ना जानत रहीं आ पीपर का फेंड़ का नीचे गाना बजाना में हमरो के गावे के मौका देत रहले.’ ऊ जोड़सु, ‘अब एह तरह ऊ अपना के हमार गुरु मानेलें त हमरो कवनो ऐतराज नइखे. बाकी गांव के बुजुर्ग हउवें, ब्राह्मण हउवें, हम आगे का कहीं ?’

लोक कवि त ई सब कुछ गणेश तिवारी का पीठ पाछा कहसु. सोझा रहसु त चुप रहसु. बलुक जब गणेश तिवारी लोक कवि के देखसु त देखते गोहारसु, ‘का रे चेला!’ आ लोक कवि उनुकर गोड़ छूवत कहसु, ‘पालागी पंडित जी!’ आ ऊ ‘जियो चेला! जीते रहो ख़ूब नाम और यश कमाओ!’ कहि के आशीर्वाद दिहल करसु. लोक कवि अपना जेब का मुताबिक सौ-दू सौ, चार सौ पांच सौ रुपिया धीरे से उनुका गोड़ पर रख देसु जवना के गणेश तिवारी ओहि ख़ामोशी से रख लेसु. बाति आइल गइल हो जाव.

एहसान फरामोशी के इहो एगो पराकाष्ठा रहुवे.

बाकिर गणेश तिवारी त अइसने रहले, अइसहीं रहे वाला रहले. गांव में उनुका पट्टीदारी के एगो आदमी फौज में रहल. रिटायर भइला के कुछ समय पहिले ओकरा रंगरूट भरती के काम मिल गइल. खूब पइसा पीटलसि. गांव में आ के खूब बड़हन दू मंजिला घर बनवलसि. पइसा के गरमी साफे लउके. जीपो वगैरह ख़रीदलस. ओह फौजी के पत्नी खेत ख़रीदे के बाति चलवलसि त फौजी एही विलेज बैरिस्टर गणेश तिवारी से खेत ख़रीदे के चरचा कइले. काहेकि गणेश तिवारी के गांवे भर के का पूरा जवार के लोग के खसरा खतियौनी, रकबा, मालियत पुश्त-दर-पुश्त जबानी याद रहुवे. एही बिना पर ऊ कब केकरा के लड़वा देसु, केकरा के कवना में अझुरा देसु, कुछ ठिकाना ना रहत रहुवे. त फौजी के इहे सुरक्षित लागल कि गणेश तिवारी के अँगुरी पकड़ के खेत ख़रीदल जाव. गणेश तिवारी आनन फानन उनुका के पाँच लाख में पांच बिगहा खेत ख़रीदवाइयो दिहलें. रजिस्ट्री वगैरह हो गइल तबहियो फौजी गणेश तिवारी का मद में गांठ ना खोललसि. त फेर एक दिन गणेश तिवारी खुदही मुंह खोल दिहले, ‘बेटा पचीस हजार रुपिया हमरो के दे द.’
‘से त ठीक बा.’ फौजी कहलसि, ‘बाकिर कवना बाति के ?’
‘कवना बाति के ?’ गणेश तिवारी बिदकले, ‘अरे कवनो भीख भा उधार थोड़े मांगत बानी. मेहनत कइले बानी. आपन सब काम बिलवा के, दुनिया भर के अकाज करिके दउड़ भाग कइले बानी त मेहनत के माँगत बानी.’
‘त अब हमहीं रह गइल रहनी दलाली वसूले ख़ातिर ? फौजी भड़क के कहलसि, ‘लाजो नइखे लागत पट्टीदारी में दलाली मांगत?’
‘लजा तू, जे मेहनताना के दलाली बतावत बाड़ऽ.’
‘काहे के लाज करीं ?’
‘त चलऽ दलालिये समुझ के सही, पइसवा दे द !’ गणेश तिवारी कहले, ‘हमहीं बेशर्म हो जात बानी.’
‘बेशर्म होईं भा बेरहम. हम दलाली के मद में एको पइसा ना देब.’
‘ना देबऽ त बाद में झँखबऽ.’ गणेश तिवारी जोड़ले, ‘रोअबऽ आ रोवलो पर रोआई ना आई !’
‘धमकी मत दीं. फौजी आदमी हँई कवनो ऐरा गैरा ना.’
‘फौजी ना, कलंक हउवऽ!’ ऊ कहले, ‘जवानन ला भरती में घूस कमा के आइल बाड़ऽ. गवर्मेंट के बता देब त जेल में चक्की पीसबऽ.’ ऊ एक बेर फेरु चेतवले कि, ‘पइसा दे द ना त बहुते पछतइबऽ. बहुते रोअबऽ.’
‘ना देब.‘ फौजी झिड़कत कहलसि, ‘एक बेर ना, सौ बेर कहत बानी कि ना देब. रहल बाति गवर्मेंट के त हम अब रिटायर हो गइल बानी. फंड-वंड सब ले चुकल बानी. गवर्मेंट ना, गवर्मेंट के बाप से कहि दऽ हमार कुछ बिगड़े वाला नइखे.’
‘गवर्मेंट के छोड़ऽ, खेतवे में रो देबऽ.’
‘जाईं जवन उखाड़े के होखे उखाड़ लीं. बाकिर हम एको पइसा नइखीं देबे वाला.’
‘पइसा कइसे देबऽ?’ ऊ हार के कहले, ‘तोहरा नसीब में रोवल जे लिखल बा.’ कहिके गणेश तिवारी चुपचाप चल अइले अपना घरे. ख़ामोश रहले कुछ दिन. बाकिर साँच में ख़ामोश ना रहले. एने फौजी अपना पुश्तैनी खेतन का साथही ख़रीदलो खेत के बड़ जोरदार तइयारी से बोआई करववलसि. खेत जब जोता बोआ गइल त गणेश तिवारी एक दिन ख़ामोश नजर से खेत के देखिओ अइले. बाकिर जाहिरा तौर पर अबहियो कुछ ना कहले.
एक रात अचानक ऊ अपना हरवाहा के बोलववले. ऊ आइल त ओकरा के भेज के ओह आदमी के बोलववले जेकरा से फौजी खेत खरीदले रहल. ऊ आइओ गइल. आवते गणेश तिवारी के गोड़ छूवलसि आ किनारा जमीने पर उकडूं बइठ गइल.
‘का रे पोलदना का हाल बा तोर?’ तनि प्यार के चासनी घोरत आधे सुर में पूछलन गणेश तिवारी.
‘बस बाबा, राउर आशीर्वाद बा.’
‘अउर का होत बा ?’
‘कुछ ना बाबा! अब तो खेतियो बारी ना रहल. का करबग भला? बइठल-बइठल दिन काटत बानी.’
‘काहें तोर लड़िका बंबई से लवटि आइल का ?’
‘ना बाबा, ऊ त ओहिजे बा.’
‘त तूहु काहे ना बंबई चल जात ?’
‘का करब ओहिजा जा के बाबा ! उहँवा बहुते सांसत बा.’
‘कवने बाति के सांसत बा ?’
‘रहे खाये के. हगे मूते के. पानी पीढ़ा के. सगरी के सांसत बा.’
‘त एहिजा सांसत नइखे का ?’
‘एह कुल्हि के सांसत त नहियै बा.’ ऊ रुकल आ फेर कहलसि, ‘बस खेतवा बेंच दिहला से काम काज कम हो गइल बा. निठल्ला हो गइल बानी.’
‘अच्छा पोलादन ई बताव कि जे तोर खेत तोरा फेरू वापसि मिल जाव त ?’
‘अरे का कहत हईं बाबा!’ ओ आंख सिकोड़त कहलसि, ‘अबले त ढेरे पइसो चाट गइल बानी.’
‘का कइलिस रे?’
‘घर बनवा दिहनी.’ ऊ मुदुकात कहलसि, ‘पक्का घर बनवले बानी.’
‘त कुल्हि रुपिया घरही में फूंक दिहलिस ?’
‘नाहीं बाबा! दू ठो भईंसियो ख़रीदले बानी.‘
‘त कुच्छू पइसा नइखे बाँचल ?’ जइसे आह भरि के गणेश तिवारी पूछले, ‘कुच्छू ना !’
‘नाहीं बाबा तीस-चालीस हजार त अबहिनो हौ. बकिर ऊ नतिनी के बियाह ख़ातिर बचवले बानी.’
‘बचवले बाड़ऽ नू ?’ जइसे गणेश तिवारी के सांस लवटि आइल. ऊ कहले, ‘तब त काम हो जाई.’’
‘कवन काम हो जाई.’ अचकचा के पोलादन पूछलसि.
‘तें बुड़बक हइस. तें ना समुझबे. ले, सुरती बनाव पहिले.’ कहके जोर से हवा ख़ारिज कइलन गणेश तिवारी. पोलादन नीचे बइठल चूना लगा के सुरती मले लागल. आ गणेश तिवारी खटिया पर बइठले-बइठल बइठे के दिशा बदललन आ एक बेर फेरू हवा ख़ारिज कइलन बाकिर अबकी तनिका धीरे से. फेर पोलादन से एक बीड़ा सुरती ले के मुंह में जीभ तर दबावत कहले, ‘अच्छा पोलदना ई बताव कि अगर तो खेतो तोरा वापिस मिल जाव आ तोरा पइसा वापिसो करे के ना पड़े त ?’
‘ई कइसे हो जाई बाबा?’ पूछत पोलादन हांफे लागल आ दउड़ के गणेश तिवारी के गोड़ पकड़ बइठल.
‘ठीक से बइठ, ठीक से.’ ऊ कहले, ‘घबराव जिन.’
‘लेकिन बाबा सहियै अइसन हो जाई.’
‘हो जाई बाकिर….!’
‘बाकिर का ?’ ऊ विह्वल हो गइल.
‘कुछ खर्चा-बर्चा लागी.’
‘केतना?’ कहत ऊ तनिका ढीला पड़ गइल.
‘घबरा मत.’ ओकरा के तोस देत ऊ अंगुरी पर गिनती गिनत धीरे से कहले, ‘इहे कवनो तीस चालीस हजार !’
‘एतना रुपया?’ कहत पोलादन निढाल हो के मुँह बा दिहलसि. पोलादन के ई चेहरा देख गणेश तिवारी ओकर मनोविज्ञान समुझ गइलन. आवाज तनिका अउर धीमा कइले. कहले, ‘सगरी पइसा एके साथ ना लागी.’ तनि रुकले आ फेर कहले, ‘अबहीं तू पचीस हजार रुपिया दे द. हाकिम हुक्काम के सुंघावत बानी. फेर बाकी तूं काम भइला का बादे दीहऽ.’
‘बाकिर काम हो जाई?’ ओकरा सांस में जइसे सांस आ गइल. कहलसि, ‘खेतवा मिलि जाई?’
‘बिलकुल मिलि जाई.’ ऊ कहले, ‘बेफिकिर हो जा.’
‘नाईं. मनो हम एह नाते कहत रहनी जे कि ऊ फौजी बाबा खेतवा जोत बो लिए हैं.’
‘खेतवा बोवले नू बाड़न ?’
‘हँ, बाबा!’
‘कटले त नइखन ?’
‘अबहिन काटे लायक हईये नइखे.’
‘त जो. खेत बोवले जरूर बावे ऊ पागल फौजी, बाकिर कटबऽ तू.’ ऊ कुछ रुक के कहले, ‘बाकी पइसा तूं जल्दी से जल्दी ला के गिन जा !’
‘ठीक बा बाबा!’ ऊ तनि मेहराइल आवाज में कहलसि.
‘इ बतावऽ कि हमरा पर तोहरा भरोसा त बा नू ?’
‘पूरा-पूरा बाबा.’ ऊ कहलसि, ‘अपनहू से जियादा.’
‘तब इहां से जो! अउर हमरे साथे-साथे अपनहू पर विश्वास राख. तोर किस्मत बहुतै बुलंद बा.’ ऊ कहलें, ‘रातो बेसी हो गइल बा.’
रात साँचहु बेसी हो गइल रहे. ऊ उनुकर गोड़ छू के जाये लागल.
‘अरे पोलदना हे सुन!’ जात-जात अचानके गणेश तिवारी ओकरा के गोहरा पड़ले.
‘हँ, बाबा!’ ऊ पलटि के भागत आइल.
‘अब एह बाति पर कहीं गांजा पी के पंचाइत मत करे लगीहे !’
‘नाहीं बाबा!’
‘ना ही अपना मेहरारू, पतोह, नात-रिश्तेदार से राय बटोरे लगीहे.’
‘काहें बाबा!’
‘अब जेतना कहत बानी वोतने कर.’ ऊ कहले, ‘ई बाति हमरे तोरा बीचे रहल चाहीं . कवनो तिसरइत के एकर भनको जन लागे.’
‘ठीक बा बाबा!’
‘हँ, नाहीं त बनल बनावल काम बिगड़ जाई.’
‘नाहीं हम केहू से कुछ नाहीं कहब.’
‘त अब इहां से जो और जेतना जल्दी हो सकै पइसा दे जो!’ ऊ फेर चेतवले, ‘केहू से कवनो चर्चा नइखे करे के.’
‘जइसन हुकुम बाबा!’ कहि के ऊ फेर से गणेश तिवारी के दुनु गोड़ छूवलसि आ दबे पाँव चल गइल.

पोलादन चल त आइल गणेश तिवारी का घर से. लेकिन भर रास्ता उनुकर नीयत थाहता रहे. सोचत रहे कि कहीं अइसन ना होखे कि पइसवो चल जाव आ खेतवो ना मिले. ‘माया मिले न राम’ वाला मामिला मत हो जाव. ऊ एहु बाति पर बारहा सोचत रहे कि आखि़र गणेश बाबा फौजी का जोतल बोअल खेत जवन ऊ खुदे बैनामा कइले बा पांच लाख रुपिया नकद ले कर, ओकरा वापिस कइसे मिल जाई भला ? ओ एही बिंदु पर बार-बार सोचता रहुवे. सोचता रहे लेकिन ओकरा कुछ बूझात ना रहुवे. आखिर में हार मान के ऊ सीधे-सीधे इहे मान लिहलसि कि गणेश बाबा के तिकड़मी बुद्धिए कुछ कर देव त खेत मिली बिना पइसा दिहले. बाकिर ओकरा कवनो रास्ता ना लउकत रहे. एही उधेड़बुन में ऊ घरे पहुंचल.

तीन चार दिन एही उधेड़बुन में रहल. रातों में ओकरा आंखिं में नींद ना उतरे. इहे सब ऊ सोचता रहि जाव. ओकरा लागल कि ऊ पागल हो जाई. बार-बार सोचे कि कहीं गणेश तिवारी ओकरा के ठगत त नइखन ? कि पइसवो ले लेसु आ खेतवो न मिलै? काहे से कि उनुका ठगी विद्या के कवनो पार ना रहे. एह विद्या का ओते कब ऊ केकरा के डँस लीहें एकर थाह ना लागत रहुवे. फेर ऊ इहो सोचे आ बार-बार सोचे कि आखि़र कवना कानून से गणेश बाबा पइसा बिना वापिस दिहले फौजी बाबा के जोतल बोवल खेत काटे खातिर वापिस दिआ दीहें ? तब जब कि ऊ बाकायदा रंगीन फोटो लगा के रजिस्ट्री करवा चुकल बा. फेर ऊ सोचलसि कि का पता गणेश बाबा ओकरा बहाने फौजी बाबा के अपना ठगी विद्या से डंसत होखसु ? पट्टीदारी के कवनो हिसाब किताब बराबर करत होखसु ? हो न हो इहे बाति होखी ! ई ध्यान आवते ऊ उठ खड़ा भइल. अधरतिया हो चुकल रहे तबहियो ऊ अधरतिया के खयाल ना कइलसि. सूतल मेहरारू के जगवलसि, बक्सा खोलववलसि, बीस हजार रुपिया निकलववलसि आ ले के चहुँप गइल गणेश तिवारी का घरे.

पहुंच के कुंडा खटखटवलसि गँवे गँवे.
‘कौन ह रे?’ आधा जागल, आधा निंदिआइल तिवराइन जम्हाई लेत पूछली.
‘पालागी पँड़ाइन ! पोलादन हईं.’
‘का ह रे पोलदना! ई आधी रात क का बाति परि गईल?’
‘बाबा से कुछ जरूरी बाति बा!’ ओ जोड़लसि, ‘बहुते जरूरी. जगा देईं.’
‘अइसन कवन जरूरी बाति बा जे भोरे नइखे हो सकत. अधिए रात के होई?’ पल्लू आ अँछरा ठीक करत आंचल ठीक करत ऊ कहली.
‘काम अइसनै बा पँड़ाइन !’
‘त रुक, जगावत हईं.’
कहि के पंडिताइन अपना पति के जगावे चल गइली. नींद टूटते गणेश तिवारी बउरइले, ‘कवन अभागा एह अधरतिया आइल बा ?’
‘पोलदना ह.’ सकुचात पंडिताइन कहली, ‘चिल्लात काहें हईं ?’
‘अच्छा-अच्छा बइठाव सारे के बइठका में आ बत्ती जरा द.’ कहिके ऊ धोती ठीक करे लगले. फेर मारकीन के बनियाइन पहिरले, कुर्ता कान्हे रखले आ खांसत खंखारत बाहर अइले. बोली में तनि मिठास घोरत पूछले, ‘का रे पोलदना सारे, तोरा नींद ना आवेला का?’ तखत पर बइठत खंखारत ऊ धीरे से कहले, ‘हां, बोल कवन पहाड़ टूट गइल जवन तें आधी रात आ के जगा दिहले?’
‘कुछऊ नाहीं बाबा!’ गणेश तिवारी के दुनु गोड़ छूवत ऊंकड़ई बइठत बोलल, ‘ओही कमवा बदे आइल हईं बाबा.’
‘अइसै फोकट में?’ गणेश तिवारी के बोली तनिका कड़ा भइल.
‘ना बाबा. हई पइसा ले आइल हईं.’ धोती के फेंट से रुपिया के गड्डी निकालत कहलसि.
‘बावे कतना?’ कुछ-कुछ टटोरत, कुछ-कुछ गुरेरत ऊ कहले.
‘बीस हजार रुपिया!’ऊ खुसफुसाइल.
‘बस!’
‘बस धीरे-धीरे अउरो देब.’ ऊ आंखें मिचमिचात बोललसि, ‘जइसे-जइसे कमवा बढ़ी, तइसे-तइसे.’
‘बनिया के दोकान बुझले बाड़े का ?’
‘नाहीं बाबा! राम-राम!’
‘त कवनो कर्जा खोज के देवे के बा ?’
‘नाहीं बाबा.’
‘त हमरा पर विश्वास नइखे का?’
‘राम-राम! अपनहू से जियादा!’
‘तब्बो नौटंकी फइलावत बाड़े !’ ऊ आंख तरेर के कहले, ‘फौजी पंडित के पांच लाख घोंटबे आ तीसो चालीस हजार खरचे में फाटत बा तोर !’
‘बाबा जइसन हुकुम देईं.’
‘सबेरे दस हजार अउरी दे जो !’ ऊ कहले, ‘फेर हम बताएब. बाकिर बाकीओ पइसा तइयारे रखीहे !’
‘ठीक बा बाबा!’ ऊ मन मार के कहलसि.
‘अउर बाति एने-ओने मत करीहे.’
‘नाहीं-नाहीं. बिलकुले ना.’
‘ठीक बा. त जो!’
‘बाकिर बाबा काम हो जाई भला?’
‘काहें ना होई?’
‘मनो होई कइसे?’ ऊ थोड़का थाहे का गरज से बोलल.
‘इहै जान जइते घोड़न त पोलादन पासी काहें होखते?’ ऊ तनि मुसुकात, तनि इतरात कहले, ‘गणेश तिवारी हो जइते!’
‘राम-राम आप के हम कहां पाइब भला.’ ऊ उनुकर गोड़ धरत कहलसि.
‘जो अब घरे!’ ऊ हंसत कहले, ‘बुद्धि जेतना बा, वोतने में रह. जादा बुद्धि के घोड़ा मत दउड़ाव!’ ऊ कहले, ‘आखि़र हम काहें ख़ातिर बानी ?’
‘पालागी बाबा!’ कहि के ऊ गणेश तिवारी के गोड़ लगलसि आ चल गइल.
दोसरा दिन फजीरही फेर दस हजार रुपए लेके आइल त गणेश तिवारी तीन चार गो सादा कागज पर ओकरा अंगूठा के निशान लगवा लिहले.
ऊ फेर घरे चल आइल. धकधकात मन लिहले कि का जाने का होखी. पइसा डूबी कि बाँची.


फेरु अगिला कड़ी में


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एगो जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह, सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां, प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित, आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

1 Comment

  1. प्रभाकर पाण्डेय

    माननीय लेखकजी की साथे-साथे अँजोरिया के संपादक जी के भी सादर आभार..हिंदी के ए महान कृति के भोजपुरी में प्रस्तुत क के भोजपुरिया साहित्य, संस्कृति के समृद्ध करे खातिर।

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