हिन्दी फिल्मों के हीरो-हीरोइनों के साथ फोटो खिंचवाने के शौक ने गोपालगंज जिले के सकरा गांव के रहने वाले युवक सतेंद्र सिंह को सिनेमा के परदे पर ला दिया. कई फिल्मों में तरह- तरह के रोल कर चुके सतेंद्र सिंह भोजपुरी में वैसी फिल्मों में काम करना चाहते हैं जिसका समाज पर सकारात्मक असर हो. ऐसी ही एक फिल्म है ‘हमके दारू नहीं मेहरारू चाहिए‘.
आपको नहीं लगता कि ‘हमके दारू नहीं मेहरारू चाहिए‘ के नाम में हल्कापन है?
अगर आप हिन्दी के हिसाब से सोचेंगे तो नाम कुछ अटपटा-सा लगेगा मगर भोजपुरी के लिए यह सटीक नाम है. वैसे हिन्दी में भी फिल्मों के जो नाम आ रहे हैं, उन पर भी उंगलियां उठ रही हैं. भोजपुरी को अपनी भाषा को लेकर गर्व है लेकिन हिन्दी में अंग्रेजी के नाम आने लगे हैं. उसका मतलब ढूंढना भी मुश्किल हो रहा है, जब तक आप फिल्म न देख लें. हां, भोजपुरी में भी कुछ फिल्मों के नाम अटपटे-से आ रहे हैं, इसके बावजूद ज्यादातर नाम आपके दिमाग में तुरंत क्लिक करने लग जाएगा. दर्शक पोस्टर को बाद में देखते हैं, पहले फिल्म के नाम पर ही आकर्षित होते हैं. इसके पहले मेरी एक फिल्म आई थी- ‘देवरा पे मनवां डोले‘. मेरी पहली फिल्म थी- ‘नेहिया लड़इनी सैयां से‘. एक फिल्म थी- ‘पिया घूंघट उठइहो धीरे-धीरे‘, जो बन नहीं पाई. ये सारे लोक व्यवहार के नाम और शब्द हैं. लोक गीतों में इतने संदर्भ कहीं न कहीं मिल ही जाएंगे. लेकिन इसके समानांतर आधुनिकता-बोध वाली फिल्में भी बन रही हैं. उनमें ‘लावारिस‘ भी शामिल है. आने वाली फिल्मों में एक कॉमेडी है ‘कलुआ बुधवा‘. सवाल नाम से ज्यादा कहानी का है कि हम फिल्म से कोई मैसेज दे रहे हैं या नहीं. वैसे भी मुझे अश्लील फिल्मों से परहेज है.
‘हमके दारू..‘ में ऐसा क्या मैसेज है जो दर्शकों को थियेटर तक लाने में सफल होगा?
इस फिल्म में भरपूर मनोरंजन है. उसके साथ-साथ मैसेज भी मिलता रहेगा. दरअसल, कहानी चंदन नाम के एक नौजवान की है, जो कॉलेज में पढ़ता है और बिजनेस भी करता है. उसे एक लड़की (रानी चटर्जी) से प्यार होता है और शादी भी हो जाती है. चंदन यानी मैं ऐसे कुछ लोगों के संपर्क में आ जाता हूं, जिसे सिर्फ दारू से लगाव है. इस आदत के कारण मां के कंगन तक बेच देता हूं. हर दारूबाज की तरह चंदन के जीवन में भी फ्रस्ट्रेशन आने लगता है. ऐसे लोग अपना गुस्सा सबसे पहले अपनी बीवी पर उतारते हैं. चंदन ने भी वही किया. बीवी को मारा-पीटा और घर से निकाल दिया. वह अपना धैर्य नहीं खोती है. लेकिन जब गांव-समाज में दारू से होने वाले कुपरिणामों और मौतों को देखती है तो विचलित हो जाती है. वह इसके विरोध में आंदोलन प्रारंभ कर देती है.
भोजपुरी सिनेमा के निर्माता कहानी में नयापन क्यों नहीं ला पाते हैं?
नयापन आ रहा है. यह निर्माता के कारण नहीं, दर्शकों की मांग पर हो रहा है. भोजपुरी के दर्शक चाहते हैं कि उनका सिनेमा भी इज्जत पाए. आम दर्शकों को पता है कि बड़े और पढ़े-लिखे लोग भोजपुरी के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं. इसलिए उनके मन में यह सवाल घूम रहा है कि अच्छी फिल्में क्यों न बनें! यह सही है कि आप दर्शक हंसी-मजाक, चुटीले संवाद और आइटम डांस चाहते हैं लेकिन हम उसे किस तरह परोसते हैं, यह हम सबकी जिम्मेदारी है. इस सिनेमा का कोई मजाक बनाए, यह किसी को भी बर्दाश्त नहीं होगा. यह कहना कि चालू फिल्में अच्छा बिजनेस करती हैं और अच्छी फिल्मों में पैसे वसूल नहीं हो पाते, गलत है. यही बात भोजपुरी को बदनाम कर रही है. अच्छी फिल्में अच्छा व्यवसाय कर रही हैं. अगर उसमें मैसेज हो तो जनजीवन पर भी अच्छा असर पड़ेगा. मैं उस दिशा में सक्रिय हूं. पहली बार जब मुंबई आया था तब अपने एक परिचित फाइट मास्टर के साथ घूम-घूम कर हिन्दी के हीरो-हीरोइनों के साथ फोटो खिंचवाता था. आज भोजपुरी के दर्शक जब मेरे साथ फोटो खिंचवाते हैं तो मैं अपने अतीत में खो जाता हूं. इस तरह एक सपना जो अपने आप सच हो गया.
(संजय भूषण पटियाला)
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