(पाती के अंक 62-63 (जनवरी 2012 अंक) से – 17वी प्रस्तुति)

– गदाधर सिंह

हम ओह राति में अधनिनियाँ में रहीं. अचके में हमार खटिया हिलल, खट-पट भइल आ हमार आँखि खुलि गइल. हम का देखतानी कि हमरा खाटी के ठीक लगे एगो पाँच-छव बरिस के कमनीय काया खाड़ बा. ओकरा मुँह पर अजबे किसिम के आभा रहे. हमरा बुझाइल कि हमरा कोठरी में सुकवा तरेंगन उगि आइल बा. हम भकुआ गइनीं आ लगनीं अचकचा के ओकरा के घूरि-घूरि के ताके. ऊ कवनो छाया-परछाई ना रहे आ ना सपना रहे. चेहरा चीन्हल बुझाइल. ऊ बोललि – तू चिन्हलऽ हमरा के ? हम कबसे खाड़ बानी. आं तूँ सूंतल बाड़ऽ. लगनी इयाद करे, इयाद परि गइल – ऊहे रूप, उहे कद काठी, उहे बोली, उहे आत्मीय हास्य ! ऊहे वात्सल्य-भाव.

– अरे सोमारो, हमार सोमरिया ? तोहरा के देखला ढेर दिन भइल रहे, ढेर दिन से तोहरा से भेंटे के मन करत रहे, मन ना मानल. चलि अइनीं हाँ. ऊ का-का दो अवरू कुछ कहलसि. हम चुप-चाप सुनत रहनीं – हमरा मुँह से बोली फुटबे ना कइल, ना जाने कवना भव-लोक में हम चलि गइलीं.

दरिआव के उफनत पानी लेख आँखि से झर-झर लोर बहे लागल. मुँह से बोली ना निकसल, ऊहो कुछ ना बोललि, बाकिर ओकरा आँखि से लोर के जवन पनार बहत रहे, ओह से हमार सउँसे देहि भींजि गइल. हमरा बुझाइल कि हम पाँच-छव बरिस के लइका बानीं आ हमरा भिरी बइठल बाड़ी हमार बाल-सखी- सोमारो, सोमारिया.

हमरा अचरज के मौन तूरत ऊ पूछली – नीक से बाड़ऽ नू ? हम इयाद परींला ? सोंचले रहनीं कि ईया आ भउजी के गोड़ लागबि, बाकिर मन मसोसि के रहि गइनीं. अब दूनों जानीं नइखीं. कतना छोह करत रहीं जा ? ‘एह घरी तूँ’कहाँ रह तारू ? कहाँ से आव तारूँ ? हम पूछनीं. हमार घर देखते नइखऽ ? ऊहे कबूरवे नू हमार घर ह ! ना जाने कतना बरिस, कयामत तक ओही में रहे के बा.बड़ा तकलीफ होला ओह में, बाकी करीं का ? मन उजुबुजा जाला त एने-ओने तनी मनीं घूमि-फिरि लीहीं ला. ना रहाइल हा त चलि अइलीं तोहरा से भेंट करे. हम कहनीं कि हमरे भिरी रहऽ ना ? एने-ओने छिछियाइल चलऽ तारू ? ऊ जबाब ना देली. खिरकी के बहरी तकली – आन्ही चले लागल रहे. ऊ कहली – झट से उठऽ, आन्हीं बहे लागल, बगइचा में आम गिरत होई, देरी करबऽ त लँगड़ा आ इसमइला पहिलहीं पहुँचि के आम बटोरि लीहें स. आम बीने के नाँव सुनते, हम खाटी पर से नीचे कूदि गइनीं, झोरा उठवनीं आ दूनों आदमी दउरनीं जा बगइचा के ओर. अइसे त बगइचा हमरे रहे, बाकिर आम लूटे में लइकन के जवन मजा मिलेला ओकरा के उमिरिगर आदमी का बुझिहें ? लइकन के एगो गोल बगइचा में पहुँचि गइल रहे. हम लइकन के आम लूटे से बरिजनीं त लइका जानि के इसमइला हमरा से अझुरा गइल. इसमइला सभ लइकन में बरिआर रहे. बस, सोमरिया इसमइला के अइसन चमेटा मरलसि कि इसमाइल राम चार ढिमिलिया खा गइले आ एक जना जब सोमरिया पर छड़ी चलवले त ऊ उनकर गरदन अइसन चींपलसि कि लगलन काइँ-काइँ करे. हम कहनीं, वाह रे सोमारो, तें अतना बरिआर बाड़े, हम ना जानत रहीं. लइका लोग चलल पराइ. आन्ही थमल त मचान पर बइठि के हमनीं के आम के चेका मारे लगलीं जा. सोमारो बड़ खुश रही. हम कहलीं – सोमारो ! एकबाल के बछिया हमरा के मारि देले रहे, त तें कतना रोवति रहलसि, इयाद बा नूं ? हँ इयाद त बड़ले बा. हमरो इहो इयाद बा कि पोखरवा में नहाये के बेरिया हम डूबे लगलीं त तूं कतना चिचियात रहलऽ ? तूं त आपन गमछी फेंकलऽ बाकिर तूहूँ फेंका गइल आ लगल तूहूं डूबे. ऊ त अमीन दादा हमनीं दूनों के छानि लेलनि नाहीं त. .. काली मइया के दोआ से हमनी दूनों के जान बाँचि गइल.

हमरा इयाद बा कि सोमारो दिन भर हमरे घरे रहत रही. साथे-साथे गोटी खेलबि जा, साथे-साथे पंडित जी के इहाँ मोट बस्ता लेके जाइबि जा. ढेर रद्दी कागज भरि के बस्ता के मोट बना देबि जा. हमार माई जब हमरा के खाये के दीही त साथे-साथे सोमारो के थरिया परोसाई. जवन हम खाइबि तवने सोमारो खइहनि, बाकिर उनकर छीपा अलगे रही. मन त करे कि एके छिपा में हम आ सोमारो साथे-साथे खाईं जा बाकिर माई बरिजि दीही. हमरा बुझइबे ना करे कि हिन्दू-मुसलमान का चीज ह ! हमार बहिनियाँ जब हमरा संघे खाले त सोमारो काहे ना खइहें ? एहसे जब हम रूसि जाइबि माई दुलार से कही कि सेयान होखब त दूनों के बिआह क देबि. ई सुनि के सोमारो खूबे खुश हो जासु बाकिर जब माई हँसे खातिर कहि दे कि सोमारू तू बदमासी करतारू ! तोहार बिआह एकरा संघे ना करबि, त सोमारो मुँह फुला के खइबे ना करसु. माई जब उनका के मनाईं आ दूनों के बिआह करेके बाकित कही त खुश हो जासु. एक दिन भउजी मनचउल करे खातिर कहि देली कि तें रोज-रोज का आवेलिसि ? लरिकवा के बिगरबे का? एह पर सोमारो रोवास मुँह बनाके कहली कि इनका के काहे नइखू बरिजत ! हम कवनो दिन लकड़ी बीने चलि जाईंला, त हमरा के बोलावे खातिर हमरा घर चलि आवेले. इनकर झँवाइल मुँह देखि के हमरा मोह लागे लागेला. माई हँसि के सोमारो के पीठि थपथपा दीही आ कही – ना हो सोमारो, तू रोजे आव, तू अपने नू बेटी हऊ ! दूनों के बिआह हम जरूर करबि.

दू दिन बीत गइल. सोमारो हमरा घरे ना अइली. हम एने जाईं, ओने जाईं, मने ना लागे. माई कहली कि सोमारो के लूक लागि गइल बा. बिना खइले-पियले तेज धूप में ओकर भउजाई लकड़ी बीने खातिर भेजि दीहले रहली हा, बस लूक के चपेट में धरा गइली. माई के बात सुनते हम दउरि के उनका घरे चलि गइनीं. देहिया छुअनीं त ओकर सँउसे शरीर आगि के भउर लेखा तवत रहे. उनका सँउसे देहि में आम पका के छापल रहे. ऊ आँखि मुँदले रही. कुछु बोलली ना. हमरो रोआई आ गइल. हमरा के लोग गोदी में उठा के घरे पहुँचा दीहल. रात भर सुतलीं ना. बुझाव कि कवनों भकाऊँ हमरा के धइले बा. हम रहि-रहि के चिचिआए लागीं. माई डेरा गइल आ मिरिए के जतन बाबा के बोला के झाड़-फूँक करवलसि. पाँ बाबा बुदबुदा के कुछ मन्तर पढ़ले. माई सवा गो रोपेआ ओंइछि के जतन बाबा के दिहलसि. फजिरे उठनीं त मन ना लागे. दउरि के सोमारो के घरे चलि गइनीं. हम का देखतानीं कि धप-धप ऊज्जर कपड़ा में सोमारो के ढाँपल रहे. उनका के उठा के लोग कबूरगाह में ले गइल. हमनी लइका सभ डरे ना जात रहीं जा. लोग बतिआई कि कबूरगाह में कवन-कवन दो जिन्ना-भूत रहेले सं. बगले में इमली के बड़का फेंड़ पर कवल बाबा रहेले. उहे लइकन के जिन्ना-भूतन से बचावे ले. ना जाने हमरा में कवन शक्ति आ गइल कि हम दउर के कबूरगाह में चलि गइनीं. सोमारो के एगो लकड़ी के तख्ता पर सुतावल रहे. बगलीं गाँव के मोलबी साहेब आइल रहले. ऊ का-का दो मन्तर पढ़ले आ आखिर में हमरा सोमारो के खेदल गड़हा में सुता दीहल गइल आ ऊपर से अइसन माटी भराइल कि जइसे ऊ छत के नीचे सुतल होखसु. हम चिचिया के लगलीं रोवे आ कबुरगाह जाये के छरिआये लगलीं. लोग दउरिके हमरा के धइल. हम कई दिन ले बोखार में पड़ल रहनीं. नीमन भइनीं त लुका के कबुरगाह चलि जाईं आ सोमारो-सोमारो कहिके बोलाईं. ओने से कवनो जबाब ना मिले त खिझिआ के ढेला उठा के मारीं. लइका हल्ला क देहले स कि ई कबूरगाह में जाके सोमरिया-सोमरिया कहिके चिचियाला. तबसे हमरा पर पहरा परि गइल.

आजु सोमरिया के अपना लगे देखि के मन खुश हो गइल बाकिर रुसि के कहनीं कि हमरा के छोड़ि के तें काहे चलि गइले ? एहिजे आके रहु. ऊ कहली कि हम त हवा नू हो गइल बानीं. हमार कहनाम रहे कि तें हमरो के हवा बना ले आ अपना संगे ले चलु. तोरा बिनु हमार मन नइखे लागत. ऊ हमार मुँह चाँपि देलसि. कहलसि कि अइसन बोलबऽ त हम तोहरा से बोलबि ना. अरे हम त गरीब रहनीं, दवाई ना भइल त हम हवा हो गइनीं. तूँ मन लगा के पढ़ऽ लिखऽ, बड़ आदमी बनऽ. माई कहत रहली तोहरा से हमार बिआह करेके. अब हम जा तानीं. तोहार बिआह देखे हम जरूर आइबि – हम भकुअइले खुलल खिरकी से बहरा ताके लागल रहीं.


पिछला कई बेर से भोजपुरी दिशा बोध के पत्रिका “पाती” के पूरा के पूरा अंक अँजोरिया पर् दिहल जात रहल बा. अबकी एह पत्रिका के जनवरी 2012 वाला अंक के सामग्री सीधे अँजोरिया पर दिहल जा रहल बा जेहसे कि अधिका से अधिका पाठक तक ई पहुँच पावे. पीडीएफ फाइल एक त बहुते बड़ हो जाला आ कई पाठक ओकरा के डाउनलोड ना करसु. आशा बा जे ई बदलाव रउरा सभे के नीक लागी.

पाती के संपर्क सूत्र
द्वारा डा॰ अशोक द्विवेदी
टैगोर नगर, सिविल लाइन्स बलिया – 277001
फोन – 08004375093
ashok.dvivedi@rediffmail.com

3 Comments

  1. साक्ष्य

    ई एगो अईसन प्रेम कहानी बावे जवना के जोडा लगावल मुश्कील बा। अउर ऐह कहानी के उपर कुछवु लिखल हमरा बुता के बाहर के बात बावे।

    नि:शब्द बानी हम गदाधर जी के ऐह रचना पऽ।

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  2. साक्ष्य

    संपादक जी प्रणाम,

    एगो बात बताई अगर हमरा, अपना द्वारा रचल कवनो रचना (कविता, कहानी भा लेख) के “पाती” मे प्रकाशीत करवावे के होखो त हम का करी? केकरा से सम्पर्क करी? अउर केतना खर्चा लागी?

    तनी ई सभ जानकारी के विस्तार मे बताई। हम आभारी रहेम राउर…।

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    • OP_Singh

      जहाँ ले हमरा जानकारी बा पाती में प्रकाशित करवावे खातिर डा॰ अशोक द्विवेदी कवनो शुल्क ना ली. बस रचना स्तरीय होखे के चाही. ज्यादा जानकारी खातिर रउरा खुद डा॰ अशोक द्विवेदी के फोन कर के बतिया लीं. उहाँ के फोन नं हवे 08004375093

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