आनन्द संधिदूत के दू गो कविता

(एक)

फूल के, फर के, टपक-चू के निझा जाए के बा.
के रहल, कइसन रहल एहिजे बुझा जाए के बा.

फूल के पचकत तपन बन के जुड़ा जाए के बा
ए दिया तोहरा भभक के बुता जाए के बा.

जिन्दगी हउए अगर रुकबऽ रुकी, चलबऽ चली
या तऽ घिस जाए के बा या जंग खा जाए के बा.

सोर बा एतना कि सोचे में बड़ा लौना लागे
काँच पाकल जौन बा तौने पचा जाए के बा.

का फरक बाटे पड़त लाठी चले कंकड़ चले
रात का तरई नियर किस्सा छिटा जाए के बा.

जलन नियर अतीत ना कइले छमा धीकत रही
ना बुतइबऽ त धुआँ बन के हेरा जाए के बा.

कहत जेकरा के प्रगति ऊ हऽ समुन्दर के लहर
उठ गइल त का भइल, गिर के समा जाए के बा

(दू)

गड़तिया अँखिया बथत बा कपार
हमें सुतहूँ न देत बाटे पेट के पहाड़.

काम बाटे केतना ले बीने के बेरावे
रतिया बिछावे के अँजोरिया सुखावे के
हाँके के बा तरई उड़ावे के बा चान
हमें सोचहूँ न देत बाटे पेट के पहाड़.

पेटवो में पेट जइसे छिलका पिआज के
साँप मुंह बेंग बइठ जोहेला सिकार के
एतने सुलभ सुख एतने सुतार
हमें कहहूँ न देत बाटे पेट के पहाड़.

छन-छन बदलत सुख सुघरइया
बदरा बयार बूनी फुलवा पतइया
फूलि-फूलि सूखि जाता सुरुचि सिंगार
हमें देखहूँ न देत बाटे पेट के पहाड़.

रावा-रावा कन-कन टेर पारे दुनिया
कहीं बोले कोकिला त कहीं ललमुनिया
काटऽ तानी अँगुरी बेरावऽ तानी घास
हमें सुनहूँ न देत बाटे पेट के पहाड़.

छोड़ि-छोड़ि खात बानीं धइ-धइ कनवाँ
कुल्हि बनि देखलीं न कतहीं चएनवाँ
तोरऽ तानी’ दिकिया नववले अधिकार
हमें रोवहूं न देत बाटे पेट के पहाड़.

(वारसलीगंज, मिर्जापुर.)
(भोजपुरी पत्रिका पाती से)

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