का लिखीं बुझाते नइखे

– लव कान्त सिंह “लव”


कुछो अब सोहाते नइखे,
का लिखीं बुझाते नइखे।

नेता कोई गद्दार लिखीं,
डाकू के सरदार लिखीं,
चोर के पहरेदार लिखीं,
कि गरीब के अलचार लिखीं,
ई उलझन सुझाते नइखे
का लिखीं बुझाते नइखे।

घोटाला के बाजार लिखीं,
बढ़त भ्रष्टाचार लिखीं,
अफसर के बेवहार लिखीं,
कि भ्रष्ट पत्रकार लिखीं,
ई बेभिचार ओराते नइखे
का लिखीं बुझाते नइखे ।

दहेज के हाहाकार लिखीं,
बाप के टूटल डांर लिखीं,
करेजा के फोफकार लिखीं,
कि बेटहा के अत्याचार लिखीं,
ई बोझा बन्हाते नइखे
का लिखीं बुझाते नइखे ।

हिन्दू के हुंकार लिखीं,
मियाँ के टकरार लिखीं,
धर्म के बेपार लिखीं,
कि फाटल दरार लिखीं,
ई खाई पटाते नइखे
का लिखीं बुझाते नइखे।

नक्सल के संहार लिखीं,
सैनिक के लाचार लिखीं,
पत्थरबाजी के रोजगार लिखीं,
कि मुर्दा ई सरकार लिखीं,
ई आग बुताते नइखे
का लिखीं बुझाते नइखे।

कुछो अब सोहाते नइखे
का लिखीं बुझाते नइखे ।।

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