किराया आ भाड़ा (बतकुच्चन – 189)

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कहे खातिर त तुलसिए बाबा कह गइल बानी कि ठठा के हँसल आ गाल फुलावल एके साथे ना कइल जा सके. बाकिर आजु के जमाना में एह तरह के नमूना आए दिन देखे के मिले लागल बा. संगही रहि के एक दोसरा से घात करे के चलन बढ़ल जात बा. नया तरीका, नया राजनीति बनावे आइल लोगो ओही राह पर बह निकलल बा जवना ला दोसरा के गरियावत रहुवे लोग. कश्मीर में आपन राजनीति चमकावे खातिर देशहित के तिलांजलि दिहल जात बा आ संगे चले वाला गोल के हालत उहे हो गइल बा कि ‘लाजे भवहि बोलसु ना, सवादे भसुर छोड़सु ना’. बाकिर हम अपना बतकूचनी परंपरा के जियावत गाल बजावल छोड़ गलथेथरई के राह पर बढ़त जाए के चाहत बानी.

अबहीं कुछे दिन भइल जब देश के रेल बजट पेश भइल रहुवे. किराया ना बढ़ावल गइल बाकिर भाड़ा बढ़ गइल. आ हम सोचे लगनी कि किराया आ भाड़ा में कुछ फरक होला कि ना, फरक होखे के चाहीं कि ना. अधिका लोग मान जाई कि किराया आ भाड़ा एके बात होला. बाकिर हम कइसे मान लीं कि महसूल आ मजदूरी एके बात होला. अगर कुछ करे दिहला खातिर कुछ लिहल जाव त ऊ भइल किराया आ कुछ कइला खातिर लिहल जाव त ऊ भइल भाड़ा. भाड़ा लेबे वाला एकरा बदले में राउर कुछ काम कर देला, कुछ सामाना ढो देला, एहिजा से ओहिजा चहुँपा देला. बाकिर दोसरा के मकान में रहे ला दिहल जाए वाला धन भाड़ा ना कहा के किराया कहाए के चाहीं. काहें कि एहिजा घर वाला अपने कुछ नइखे करत, ऊ त बस रउरा के अपना मकान में रहे देत बा. होटल के रूम के किराया आ सामान ढोए के भाड़ा के फरक रेलवे में जा के तनी अझुराए लागेला. रेल अपना कोच में रउरा के ढो के एक जगहा से दोसरा जगहा चहुँपावेला एहसे एकरा के भाड़ा कहे के चाहीं, किराया ना. बाकिर रेलवे के विश्रामगृह में लागे वाला शुल्क भाड़ा ना होके किराया होखेला. बाकिर मकान भाड़ा भा घर भाड़ा पता ना कइसे अतना प्रचलन में आ गइल कि किराया आ भाड़ा के फरके मेटा दिहलसि. शुल्क में सबकुछ समाहित हो जाला. शुल्क किराया हो सकेला, भाड़ा हो सकेला, मास्टर के डाक्टर के फीस हो सकेला, सेवा के दाम हो सकेला वगैरह वगैरह. सरकारी कार्यालय में राउर काम कइला का बदले कर्मचारी भा अधिकारी लोग जवन शुल्क मांगेला ओकरा ला शब्द होला उत्कोच. आ जब उत्कोच का बारे में सुनब त लागी कि ई त शुरुवे से चलल आवत बा. उत्कोच के सहज भाव से समुझे के होखे त जान लीं कि केहू के कुछ काम करे खातिर कोंचे में जवन धन दिहल जाला तवने के उत्कोच कहल जाला. अब देखीं त एह उत्कोच का बदले समाज में चलत शब्द घूस में ऊ ध्वनि ना निकले जवन उत्कोच में निकलत बा. बाकिर समाज ओकरे के मान देबे ला जे चल निकलेला. आ कई बेर एह फेर में खोटो सिक्का चल निकलेला. अलग बात बा कि ढेर दूर ले ना जा पाए आ अपना मन के तोस देबे के पड़ेला अपने सिक्का खोटा निकल गइल त का कहल जाव.

अब हमरा बतकुच्चन में खोट निकलो भा ना हम त चलनी अपना कान के खोट निकलवावे. इहो खोट खोटे नू ह !

1 Comment

  1. amritanshuom

    नीमन बहुत नीमन बहुत
    धन्यवाद !

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