फिरू बसन्त चलि आइल

– अशोक द्विवेदी


ओढ़नी पियर, चुनरिया हरियर / फिरु सरेहि अगराइल
जाये क बेरिया माघ हिलवलस, रितु बसन्त के आइल!

फुरसत कहाँ कि बिगड़त रिश्ता, प्रेम पियाइ बचा ले
सब, सबका पर दोस मढ़े अरु मीने-मेख निकाले
सीखे लूर नया जियला के, उल्टे बा कोहनाइल !!

क्रूर-समय का अँकवारी में, दमघोंटू संवेदन
कहाँ हिया के भावुकता के समुझे आज निठुर मन
अपना हक-हिस्सा खातिर, बा सभे आज छरियाइल !!

हानि-लाभ का गुणा-गणित में, के देखे सुघराई
पीढ़ा ऊँच भइल वैभव के, नीक लगे प्रभुताई
बजट-बसन्ती हरलस मति, मन-सुगना बा मुरछाइल!!

का बसन्त, का फागुन, सबमें भेदे-भाव समाइल
राजनीति के भंग इहाँ, हर कुँइयाँ लगे घोराइल
तबो जगावत लोकरीति के फिरु बसन्त चलि आइल !!

सखि रे रितु बसन्त के आइल !!

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