बस जिन्दा बानी जीयत नइखीं

हमार नाम का हऽ एकरा से रउरा का ! जवने मन करे तवने मान लीं. आइल बानी बलिया जिला से, उहे जहवां के रहलन दाढ़ी बाबा, चन्द्रशेखर सिंह. देश के प्रधानमंत्री ओ बनलन. आ बलिया खातिर उनुकर सबले बड़का देन रहल राजधानी एक्सप्रेस. आम आदमी के त राजधानी एक्सप्रेस से का मतलब. हमरा ला त उत्सर्ग, सद्भावना, वगैरहे चलेला. गाँव में एगो दू कोठरी के छोटहन घर बा – माटी के देवाल, खपरैल के छत. बाबूजी अब रहलेना, अम्मा बूढ़ा गइली. दू गो छोट भाई बाङ़े सँ, अबहीें स्कूल में पढ़त बाड़े सँ. आ हम घर चलावे खातिर रउरा एह शहर में आ गइल बानी. आ जानते बानी कि नौकरी मिलल आजु का जमाना में कतना बड़हन सपना हो गइल बा. मजदूरी कइल हमरा सकान में नइखे. से आजुकाल्हु के चलन का हिसाब से रउरा शहर में डिलीवरी बॉय के काम करत बानी.

सुबह सबेरे पाँच बजे से उठ जाइलें. नहा-धो के, रोटी-सब्जी के झोरा में बाँध के निकल जाइलें. शहर के ई भीड़, ई ट्रैफिक, आ ई गरमी. हे भगवान! जून के महिना में त जाने निकल जाला. माथपर हेलमेट, पीठ पर बैग, आ मोटरसाइकिल से सारा शहर नापत रहेनी.

डिलीवरी ब्वाय के काम आसान ना होला. एक दिन में बीस-पचीस ऑर्डर लेके घुमे के पड़ेला. कहीं से पिज्जा ले जाईं, कहीं से दवाई, कहीं से कपड़ा. सभका सभकुछ टाइमे पर चाहीं, “लेट हो गइल त खराब रिव्यू दे देब”. अइसन बोले वाला ग्राहक का सोझा त हँसही के पड़ेला बाकिर मन का भीतर जवन होला तवन बतावे जोग ना होखे.

गरमी में त पसीना से कपड़ा भींज जाला, माथा घूमे लागेला. जेब में दू गो ठंढा बोतल खरीदे के पइसा ना होखे. ट्रैफिक लाइट पर खड़ा रहिले त मन करेला कि बस, अब एहीजे पटा जाईं. एसी वाली कार में बइठल लोग त अइसन ताकेला जइसे हम गरीब मनई इंसाने ना हईं सँ.

महीना के आखिर में तनख्वाह देखिले त रोवे के मन हो जाला. कबो सात हजार त कबो बहुत भइल त नौ – दस हजार. एही में रूम किराया, पेट्रोल, मोबाइल रिचार्ज, आ ओकरे में से बचा खुचा के घरे भेज दीहिलें. अपना खातिर कुछ बचबे ना करे.

कबो-कबो लागेला कि का मिली ई सब कर के? ना कवनो छुट्टी, ना कवनो इज्जत, ना कवनो भविष्य. बस एगो मशीन बन के रह गइल बानी. सुबह से रात, डिलिवरी के बैग उठवले, मोबाइल के नोटिफिकेशन देखत, ग्राहक के फोन उठावत. जिन्दा त बानी, बाकिर जीयत नइखीें. एकरा के जिनिगी कइसे कह लीं.

रात में जब खाली रस्ता पर मोटरसाइकिल चलावत बानी, त आँख में अम्मा के चेहरा घूमत बा. कहऽतारी – “तनी आपनो ख्याल रखीहऽ ए बबुआ. ठीक से खइहऽ पी हऽ ना त देह गिर जाई त देखान के करी. बड़ दिन से आइल नइखs. दू चार दिन के मौका निकाल के एक बेर चलि आवऽ.” उनकर बोली सुन के मन रोआइन हो गइल बा. बाकिर आवे जाए के भाड़ा के जोगाड़ो त सहज नइखे. भाईयन से बतियाइले त पता चलेला कि स्कूल में फीस बाकी बा. मास्टर कहेलन कि, “भइया, स्कूल से नाम काट देब.” आ हम फिकिर में पड़ जानी कि अब एकर जोगाड़ कइसे करीं.

ई शहर बड़हन त जरूर बा, बाकिर एहिजा दिल नइखे. मानवता नइखे. सब झूठ के हँसी ह, बनावटी बात बा. गाँव में गरीबी रहल, बाकिर सुकून त रहुवे. गाँव में लोग दरवाजा पर बइठ के बतियात रहे, ईहाँ त पड़ोसीओ ना जानेला कि रउरा के हँई.

कबो-कबो मन में आवेला कि ए भभीखन चल गाँवे. ओहिजे कुछ काम धंधा कर के घर चलावे के कोशिश करब. कम से कम परिवार में त रहब. अम्मा, भाइयन के चेहरा त रोज देख पाएब. बाकिर फेर याद आवेला – गाँव में रोजगार कहाँ बा? छोट भाईयन के पढ़ाई, अम्मा के दवाई, घर के खरची कहाँ से चली?

अइसन लागेला कि हम जीयत नइखीं. जिन्दा रहे के नाटक कर रहल बानी. हर दिन एके रुटीन. ना कवनो सपना, ना कवनो मंजिल. लोग कहेला कि मेहनत से सब मिल जाला. बाकिर हम त रोज खून-पसीना बहावत बानी, तबो काहे नइखे कुछ मिलत?

रात में जब बैग उतार के बिछवना पर गिरेनी त मन में एके बात आवेला, “काल्हुओ इहे सब करे के. इहे गरमी झेले के बा, एही तरह जिए के बा.”

अब एकरा के कहानी मत समुझब, ई हमरा जिनिगी के सचाई हवे. हमार आवाज शायद केहू ना सुने, बाकिर हम त बस एही आस में बानी कि कबो अम्मा के सपना, छोट भाई लोग के पढ़ाई, आ हमार आपन मान-सम्मान साँच होई.

देखीँ कबो संजोग होखी त रउरो से भेंट हो जाई. रउरा आर्डरे कर के मंगवाइले नू सब कुछ? आ कि बगल के दोकान से सामान ले आइलां? देखीं ना डिलिवरी त बिना दामे के हो जाला. आवे जाए में खरचा ना होखे, समय के बरबादी ना होखे. ए सब ला त हमनी का डिलिवरी ब्वाय बड़ले बानी. बस एगो निहोरा. हमार कवनो भाई बन्धु कुछ सामान चहुँपावे रउरा दुआरी आवे त एक दू शब्द प्यार से बतिया लेब. शायद थकान कुछ कम हो जाई ओकर.

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