बांसगांव की मुनमुन – 18 वीं कड़ी

बांसगांव की मुनमुन – 18 वीं कड़ी

( दयानन्द पाण्डेय के बहुचर्चित उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद )

धारावाहिक कड़ी के अठरहवां परोस
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( पिछला कड़ी में पढ़ले रहीं कि पुरुष समाज से विद्रोह कइले मुनमुन अब प्रशासनिक सेवा मेें जाए के तइयारी करे के फैसला क लिहले बाड़ी. देखल जाव कि आगे का होखत बा.
पिछलका कड़ी अगर ना पढ़ले होखीं त पहिले ओकरा के पढ़ लीं.)

एही बीच गिरधारी राय के गंगालाभ हो गइल.

आखिरी समय में उनुकर बहुते दुर्दशा भइल. बेटा सब दवाई, भोजनो का बारे में ना पूछले सँ. बिछवनो साफ करेवाला, बदले वाला ना रहुवे. कवनो नात-रिश्तेदार ग़लती से उनुका के देखे चहुँपियो जाव त तुरते भाग परात रहुवे. उनुका देह में कीड़ा पड़ गइल रहले सँ. दूरे से बदबू मारत रहले स. केहू लाजे लिहाजे नाक दबा के बइठियो जाव त गिरधारी ओकरा से दस-पांच रुपिया मांगे लागसु. रुपिया मांगे के त उनुकर पुरान आदत रहुवे. बिना संकोच ऊ केहू का सोझा हाथ पसार देसय. पट्टीदार, रिश्तेदार, परिचित, अपरिचित जे ही केहू भेंटा जाव. केहू दे देव त केहू नाहियो देत रहल. तबहियों उनुकर मांगल ना रुकल करे. अब जब उनुकर गंगालाभ हो गइल त मजिल (शव यात्रा) में बहुते कम लोग शामिल भउवे. बाकिर मुनक्का राय शामिल रहलें. लाश जरा दीहल गइल बाकिर आग ठीक से लागल ना. एक त बेमारी वाला देह, दोसरे लकड़ी गील. शमशेन में बइठल लोग उनुकर अच्छाई-बुराई बतियात रहलें. आ उनुकर लाश बा कि लाख कोशिश का बादो ठीक से जरत ना रहुवे. डोम, पंडित, परिजन सभे परेशान. परेशान रहलें मुनक्को राय. एगो पट्टीदार से बतियावत रहलन, ‘चल त गइलन गिरधारी भाई बाकिर हमरा के लाचार बना के. हमरा के बरबाद करे में ऊ अपना ओर से कवनो कोर-कसर ना छोड़लन.’

‘त भुगतबो त कइलन.’ पट्टीदार बोलल, ‘देखीं मरला का बादो जर नइखन पावत. देह में कीड़े पड़ गइल. दाना-दाना खातिर तरसत मुअलें. भगवान सगरी स्वर्ग-नरक एहिजे देखा देत बाड़न. जस करनी तस भोगहू ताता, नरक जात फिर क्यों पछताता! का वइसही कहल गइल बा?’

‘से त बा!’ मुनक्का राय कहत जम्हाई लेबे लागल रहलन. ऊ कहल चाहत रहलन कि गिरधारी भाई का साथे एगो युग पूरा हो गइल का तर्ज पर कि गिरधारी भाई का साथे एगो दुष्ट समाप्त हो गइल. बाकिर सोचिये के रह गइलन बोललन ना. काहें कि ई सही मौका ना रहल अइसन कुछ कहे के. बाकिर अपना मन के चुभन आ टीस के ऊ करसु? एकनी के कहां दफनावसु? कवना चिता में जरावसु एहनी के? आ मुनमुन? मुनमुन के चिंता उनुका के चितो से बेसी जरावत रहल. ऊ करसु का?

ऊ का करसु? भकुचाइल एगो बूढ़ बाप करिये का सकत रहुवे सिवाय अफ़सोस, मलाल अउर चिंता कइला के? लोग समुझत रहल कि उनुकर परिवार प्रगति का पथ पर बा. बाकिर उनुकर आत्मा जानत रहल कि उनुकर परिवार पतन के गहिराई में बा. ऊ सोचसु आ अपना आपे से बतियावसु कि भगवान संतान के अइसनो लायक मत बना देसु कि ऊ बाप-महतारी परिवार से अतना फरका चल जा सँ. अपना आप में अतना मशगूल हो जाँ स कि बाकी दुनिया ओहनी के लउकबे ना करे. अख़बारन में वह पढ़सु कि अब दुनिया ग्लोबलाइज़ हो गइल बा. मानो सगरी दुनिया एगो गाँव बन गइल ना. बाकिर उनुका लागे कि अख़बार वाला ग़लत छापत बाड़न सँ.

बेटियन से त कवनो उम्मेद ना रहल बाकिर उनुकर चारो बेटा कवना ग्रह पर रहत रहले सँ कि उनुकर दुख, उनुकर यातना ओहनी के लउकते ना रहल. बेटन के एह उपेक्षा अउर अपमान का बाबत ऊ केहू से कुछ कहियो ना सकत रहलन. लोक लाज का मारे कि लोग का कही? ऊ ईहे सब सोचत अपना आपे से पूछल करसु कि, ‘का एकरे के ग्लोबलाइजे़शन कहल जाला?’

सवाल त उनुका लगे अनगिन रहल, बाकिर जवाब कवनो के ना रहल उनुका लगे. कहल जाला कि दिल पर जब बोझ बहुत हो जाव त केहू से साझा कर लेबे के चाहीं. एहसे दुख के बोझ कुछ कम हो जाला. बाकिर मुनक्का राय इहे सोचसु कि ऊ अपने बेटन के शिकायत केकरा करसु? अनका से अपना बेटन के शिकायत करत में ऊ मर ना जइहें. एहसे जब कबो बेटन के जिक्र होखे त कहल करसु कि, ‘हमार बेटा सब त रतन हउवें स!’

बाकिर बेटा सब ना जाने कवना राजा के रतन बन गइल रहले सँ कि माता पिता के दुख देखले बिना उनहन के बिसार बइठल रहले सँ. एक बेर धीरज से फ़ोन पर ऊ कहलहूं रहलन कि, ‘बेटा जब तूं अध्यापक रहल त बेसी नीक रहलऽ. हमहन के दुख-सुख अधिका समुझत रहलऽ. तोहरा इयाद होखी कि ओह दिना तोहरा से मिलत नियमित मदद का वशीभूत हम तोहार नाम कबो नियमित प्रसाद त कबो सुनिश्चित प्रसाद रख देत रहीं आ कहल करीं.” बाकिर एह पर ऊ कुछ बोलल ना उलुटे आपने व्यस्तता आ खरचा गिनवावे लागल रहुवे.

चुप रह गइल रहलन मुनक्का राय. ओही दिनन में टी.वी. पर आवत एगो कवि सम्मेलन पर एगो कवि कविता सुनवले रहलन, ‘कुत्ते को घुमाना याद रहा पर गाय की रोटी भूल गए/साली का जनम दिन याद रहा पर मां की दवाई भूल गए।’ सुन के ऊ फेरु अपने आप से बोललन, ‘हँ, ज़माना त बदल गइल बा.’ बाद में पता चलल कि धीरज के दू दू गो साली ओकरे किहाँ नियमित रहत रहली सँ. आ ऊ अपना ससुराल पर खासा मेहरबान बावे. एगो बड़हन कुकुरो पोस लिहले बा. शायद एही सब का चलते ऊ आपन नियमित प्रसाद आ सुनिश्चित प्रसाद के भूला गइल रहुवे. भूला गइल रहल कि अम्मा बाबू जी खानो खाला लोग आ दवाईओ. बाकी ज़रूरतो बाड़ी सँ एकरा ऊपर. नातेदारी, रिश्तेदारी, न्यौता हकारी. सब भूला गइल रहलन नियमित प्रसाद उर्फ सुनिश्चित प्रसाद उर्फ धीरज राय.

का डिप्टी कलक्टरी अइसने होखेले?

अइसने होखेलें न्यायाधीश?

अइसने होखेलें बैंक मैनेजर?

आ अइसने होखेलें एन.आर.आई?

का एन.आर.आई. राहुलो कबो गावत होखी, ‘हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चांद।’ आ ऊ पंकज उधास के गाना सुनत होखी कि, ‘चिट्ठी आई है, वतन से चिट्ठी आई है! सात समंदर पार गया तू हम को जिंदा मार गया तू!’ सुनत होखी का, ‘मैं तो बाप हूं मेरा क्या है/तेरी मां का हाल बुरा है।’ सुनत होखी एह गाना के तासीर, ‘कम खाते हैं, कम सोते हैं बहुत ज़ियादा हम रोते हैं।’ का जाने सुनतो होखी? सुनत होखिहें बाकिओ सब. न्यायाधीशो, डिप्टी कलक्टरो आ बैंक मैनेजरो. भा इहो होखत होखे कि ई गाना सुनते ऊ सब बंद कर देत होखिहें सँ. सुनले ना चाहत होखिहें सँ. जइसे कि धीरज अब फ़ोनो ना सुने. मोबाइल या त उठे ना भा स्विच आफ़ राखेला. लैंड लाइन फ़ोन कवनो कर्मचारी उठावेला आ कवनो मीटिंग में होखे के भा बाथरूम में बता देला. केतनो जरुरी बात होखो ऊ सुनले ना चाहे. का ऊ अपना इलाका के जनतो के अइसने अनसुनी करत होखी? सोचिये के मुनक्का राय कांप जालें.

कांप गइल रहुवे मुनमुनो जब एक दिन अचके ओकर पति राधेश्याम बांसगांव ओकरा घरे आ धमकल रहुवे. मुनमुन आ अम्मा दुनू दुआरे पर ओसारा में बइठल एगो पड़ोसन से बतियावत रहली. मुनमुन के बोखार रहल से ऊ स्कूल ना गइल रहल. राधेश्याम आइल. मोटरसाइकिल दरवाजा पर खड़ा क के ओसारा में आइल. एगो ख़ाली कुर्सी पर धप्प से बइठ गइल आ मुनमुन से बोलल, ‘चल, हमरा साथे आ अबहियें!’

‘कहां?’ मुनमुन अचकचा गइल. पूछलसि, ‘रउरा के?’

‘त अब अपना भतारो के नईखू चीन्हत?’ राधेश्याम महतारी के गारी देत बोलल, ‘चीन्ह ले आजु से, हम तोहार भतार हईं.’

‘अरे?’ कहत ऊ घर में भागल. राधेश्याम शराब का नशा में टुन्न रहल. आवाज़ लड़खड़ात रहल बाकिर ऊ लपक के, झपट्टा मार के मुनमुन के पकड़ लिहलसि. बोलल, ‘चल कुतिया अबहियें हमरा साथे चल!’

अम्मा हस्तक्षेप कइली आ हाथ जोड़त कहली, ‘भइया पहिले चाय पानी त कर लीं.’

‘हट बुढ़िया!’ अम्मा के ढकेलत राधेश्याम बोलल, ‘चाय पीने ना, आजु एकरा के ‘लेबे’ आइल बानी.’

अम्मा के कपरा देवारी से टकरा के फूट गइल आ ऊ गिर के रोवे लगली, ‘हे राम केही बचावऽ हमरा बेटी के.’ मुनमुन प्रतिरोध कइलसि त राधेश्याम ओकरो के झोंटा पकड़ि के पीटल शुरु कर दिहलसि. ओहिजा बइठल पड़ोसन बचाव में आइल त ओकरा महतारी-बहिन करत लात जूता से पीट दिहलसि. चूंकि ई मार पीट घर का बहरिये होखत रहल से कुछ राहगीरो दखल दिहलें आ राधेश्याम से तीनों औरतन के छोड़वलें. राधेश्याम के दू तीन लोग कस के पकड़ल आ ओरतन से कहल कि,‘रउरा सभे भितरी जाईं.’

मुनमुन आ ओकर अम्मा त घर में जा के भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिहली. पड़ोसन अपना घर भागली. फेर राहगीर लोग राधेश्याम के छोड़ल. राधेश्याम राहगीरनो के महतारी-बहिन कइलसि आ बहुते देर ले मुनमुन के घर के दरवाज़ा पीटलसि-गरियवलसि. फेर ऊ चल गइल. घर का दरवाज़ा साँझ बेरा तबहियें खुलल जब मुनक्का राय कचहरी से घरे आइलन. ऊ जब ई सगरी वृतान्त सुनलन त कपार ध के बइठ गइलन. बोललन, ‘अब इहे सब देखल बाकी रह गइल बा एह बुढ़ौती में? हे भगवान कवन पाप कइले रहीं जे ई दुर्गति हो रहल बा. ?’

थोड़िका देर बाद ऊ गइलन आ एगो डाक्टर के बोला ले अइलन. महतारी बेटी के सुई, दवाई, मरहम पट्टी क के ऊ चल गइल. देह के घाव त दू चार दिन में सूख जाई बाकिर मन पर लागल घाव?

शायद कबहियों ना. देह के घाव अबहीं ठीक से भरलो ना रहल कि अगिला हफ्ता राधेश्याम फेर आ धमकल. अबकी ऊ मोटरसाइकिल दरवाज़ा पर ठाड़ करते रहल कि महतारी-बेटी भाग के घर में घुस गइली आ भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिहली. बाकिर राधेश्याम मानल ना आ दरवाज़ा पीटत गारी बकत रहल आ कहत रहल कि,‘खोल-खोल. आजु लेइए के जाएब.’

बाकिर मुनमुन दरवाज़ा नाहियें खोललसि. फेर राधेश्याम बगल का एगो घर में गइल. ओहिजे गारी-गुफ्ता कइलसि. ऊ लोग जानत रहल कि ई मुनक्का राय के दामाद ह से हाथ जोड़ के ओकरा के जाए ला कहल. ऊ फेर मोटरसाइकिल ले के गिरधारी राय का घरे चहुँपल. जब ओकरा मालूम चलल कि गिरधारी राय मर गइलन त भगवानो के गरियवलसि आ चाय पीयत-पीयत एगो पतोहु के पकड़ लिहलसि आ बोलल, ‘मुनमुन नइखे चलत त तूंहीं चलऽ. तोहरो पर त हमार हक बनेला.’

गिरधारी राय के बेटो भी पियक्कड़ रहले सँ से ओहनी के बहूओ जानत रहली सँ कि पियक्कड़न से कइसे निपटल जाला. से बोलल, ‘हँ-हँ काहे ना. पहिले कपड़ा त बदल लीं. रउरा तब ले बहरी बइठीं.’ कहि के ऊ राधेश्याम क बहरी बइठा के भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिहलसि. राधेश्याम फेर एहिजो तांडव कइलसि. दरवाज़ा पीट-पीट के गारी के बरसात करत रहल. फेर त आए दिन के बाति हो गइल राधेश्याम ला. ऊ पी-पा के आवे आ ओकरा के देखते औरत सब घर के भीतर हो के दरवाज़ा बंद कर लेत रहली सँ. मुनमुन का घरे ऊ दरवाज़ा पीट-पीट के गरियइबे करे, पड़ोसियनों का घरे आ गिरधारीओ राय का घरे. जइसे ई सब ओकर रूटीन हो गइल रहुवे. मुनमुन का घरे त ऊ पलट-पलट के आवे, कई-कई बार. मुनमुन का घरे गारीगुफ्ता क के पड़ोसी का घरे जाव. फेर पलट के मुनमुन का घरे. फेर गिरधारी राय किहां. फेर मुनमुन किहां. फेर कवनो पड़ोसी, फेर मुनमुन, जब ले ओकरा पर नशा सवार रहे ऊ आइल-गइल जारी राखे.

एक दिन राधेश्याम गाली गलौज के दू राउंड क के जा चुकल रहुवे जब मुनमुन के फुफेरा भाई दीपक आइल रहुवे. ई फुफेरा भाई दिल्ली में रहेला आ दिल्ली यूनिवर्सिटी के कवनो कालेज में पढ़ावेला. दीपक बहुते दिन का बाद दिल्ली से अपना घरे आइल रहुवे त सोचलसि कि चलि के मामा-मामी से भेंट कर आईं. काहें कि ऊ लईकाई में अकसर मामा-मामी किहाँ आवत रहुवे आ मामी बहुते चाव से किसिम-किसिम के पकवान बना-बना के ओकरा के खियावल करसु. ऊ मामी किहां हफ्तन रह जात रहुवे गरमियन का छुट्टी का दौरान. मामी ओकरा के बहुते मानतो रहली. तब मामी ख़ूब भरल-पुरल आ ख़ूब सुंदर लउकस. हमेशा फिल्मी हीरोइनन का तरह सजल सँवरल रहल करस. मामो सभका सोझे उनुका से हंसी ठिठोली कइल करसु. मुनमुन तब छोटहन नटखट रहुवे. ओह घरी मामा के प्रैक्टिसो खूब चटकल रहल करे. फ़ौजदारी आ दीवानी दुनू तरह के मुकदमन में उनुकर चांदी कटल करे. लक्ष्मी जी के अगाध कृपा रहल ओह घरी मामा-मामी पर. कहे वाला कहसु कि मुनमुन बड़ भाग्यशाली बिया. बड़ भाग लेके आइल बिया. साक्षात लक्ष्मी बन के आईल बिया. अइसन लोग कहल करे. जिला में तब बाह्मण-ठाकुर बाहुबलियन के बोलबाला रहल करे आ बांसगांव के पास सरे बाज़ार एगो गुट के सात लोग जीप से उतार के मार दीहल गइल रहले. अगिले हफ्ता दोसरका गुट अपना विरोधी ग्रुप के नौ लोगन के बाजार में घेर लिहलस. पांच जने खेत हो गइलन आ चार जने केहू तरह नदी में फान के पँवड़त जान बचा पवले. एक बेर जब सरे राह एगो छात्र नेता के हत्या मुख्य बाज़ार में हो गइल त अगिले दिना एगो विधायक के हत्या सुबहे-सुबह रेलवे स्टेशन पर क दीहल गइल. ई सगरी ताबड़तोड़ हत्या बांसगांव के लोगे करवावत करे.

बांसगांव तब तहसील ना, अपराध के भट्ठी बन गइल रहल. धर पकड़ के जइसे महामारी मचल रहल. आ एही दिनन में मुनक्का राय के प्रैक्टिस जमल रहुवे. ज़मानत करवावे में ऊ माहिर रहलन. कोर्ट में उनुकर खड़ा होखला के मतलब होखल करे कि ज़मानत पक्की! बाकिर तब के दिन आ आजु के दिन ! अब ते मामा के प्रैक्टिस चरमरा गइल रहुवे आ ऊ हीरोइन जइसन लउके वाली मामी के भरल-पुरल देह हैंगर पर टंगाइल कपड़ा जइसन हो गइल रहल. देह का बस हड्डियों के ढांचा रह गइल रहली मामी. एगो बेटा के मुअला का बाद जब उनुकर देह गिरल शुरु भइल त फिर रुकल ना. मामी के आज चार गो बेटा बाड़ें, पहिले ई पांच गो रहलें. तरुण आ राहुल के बीच के शेखर. हाई स्कूल विथ डिस्टिंक्शन पास कइला का बादे से शेखर के तबियत खराब रहे लागल. बांसगांव के डाक्टर इलाज कर-कर के थाक गइलें त शहर के डाक्टरनो के देखावल गइल शेखर के. दुनिया भर के जांच पड़ताल का बाद पता चलल कि शेखर के दुनू किडनी खराब हो गइल बा. डायलिसिस वग़ैरह शुरू भइल आ आखिर में तय भइल कि बनारस जा के बी.एच.यू. में किडनी ट्रांसप्लांट करवावल जाय.

मुनक्का राय ख़ुद आपन एगो किडनी देबे ला तइयार हो गइलन. कहलन कि, ‘बेटा ला कुछऊ करे के तइयार बानी.’ ऊ शेखर के कहल करसु, ‘बाबू शेखर जवने मन होखे खा लऽ, जवने पहिरे के मन करे पहिर लऽ. का जाने बाद में का होखे वाला बा ? तोहार कवनो मनसा बाकी ना रहे के चाहीं. सगरी मनसा पूरा लऽ.’ बाकिर शेखर अम्मा-बाबू जी के परेशानी देखत कहे, ‘ना बाबू जी, हमरा कुछऊ ना चाहीं.’ फेर ऊ जोड़ देव कि, ‘बाबू जी मत करवाईं हमार आपरेशन. बहुते खरचा हो जाई.’ दरअसल ऊ देखत रहुवे कि बाबू जी के लगभग सगरी कमाई ओकरा आपरेशन में दांव पर लागे जात रहुवे. ओहपर से कर्जो के नौबत रहल. से ऊ कहे, ‘आपरेशन का बादो का जाने हम ठीक होखब कि ना. रहे दीं.’

तबहियों मुनक्का राय शेखर के किडनी ट्रांसप्लांट में होखे वाला सगरी खरचा के पूरा व्यवस्था जब कर लीहलन त एक दिन ऊ शहर गइलन शेखर के ले के. एगो हार्ट स्पेशलिस्ट रहलन सरकारी डाक्टर. उहो बी.एच.यू. ए से पढ़ल रहलन. उनुकरे एगो परिचित डाक्टर बी.एच.यू. में किडनी ट्रांसप्लांट करत रहलें. उनुका ला सिफ़ारिशी चिट्ठी ओह सरकारी डाक्टर से लिखवावे ला मुनक्का राय आइल रहलन उनुका लगे. डाक्टर का सोझा ऊ शेखर का साथे बइठल रहलन. बातचीत का बाद जब डाक्टर सिफारिशी चिट्ठी लिखते रहलन जब अचके में शेखर का छाती में ज़ोर से दर्द उठ गइल. ऊ छटपटाए लागल. डाक्टर चिट्ठी लिखल छोड. ओकरा के अटेंड कइलन. उनुकर पूरा अमला लाग गइल शेखर के बचावे ला. बाकिर सोरह बरीस के शेखर जे किडनी के पेशेंट रहल, हार्ट स्पेशलिस्ट का सोझे हार्ट अटैक के शिकार हो गइल. आ ऊ हार्ट स्पेशलिस्ट लाख कोशिश का बावजूद ओकरा के बचा ना पवलन. शेखर जब मरल तब मुनक्का राय का बाँहे में रहल. ऊ रोवत-बिलखत शेखर के पार्थिव देह लिहले बांसगांव अइलें. शेखर के महतारी पछाड़ खा के गिर पड़ली. कई दिन ले ऊ बेसुध रहली. जवान बेटा के मौत उनुका के तूड़ दिहलसि. मुनक्का राय अपनहूं कहसु, ‘जवना बाप के कान्ह पर जवान बेटा के लाश आ जाव ओकरा से बड़ अभागा दोसर केहू ना हो सके.’ टूटल फूटल मुनक्का राय बहुते दिन ले कचहरी ना गइलन.

फेर ऊ गँवे-गँवे सम्हरले आ कचहरी जाए लगलन बाकिर शेखर के अम्मा ना सम्हरली. शेखर का याद में, शेखर का ग़म में ऊ गलत गइली. ओकरा बाद पारिवारिको समस्या एक-एक क के आवत गइल आ ऊ कवनो मकान के कच्चा देवाल जइसन धीरे धीरे भहरात गइली. गलत गइली. फेर उनुकर देहरष्टि जइसे बिसरे लागल, रुस गइल. ऊ बेमार रहे लगली. रहल सहल कसर मुनमुन के तकलीफ़, बेटन के उपेक्षा आ अचके में आ गइल दरिद्रता पूरा कर दीहलसि. ऊ कवनो हैंगर पर टंगाइल कमीज का तरह चलत फिरत कंकाल हो गइली. जइसे ऊ ना उनुकर ढांचा चले. उनुकर मांसलता, उनुकर सुंदरता, उनुकर बांकपन उनुका से विदा हो गइल. उनकर लहरत चाल, उनुका गाल पर पड़े वाला गड्ढा आ उनुका आंखिन के शोख़ी जइसे कवनो डायन सोख लीहलसि. तबहियों दीपक एह मामी के दुलार ना भुलाइल रहुवे. उनुकर ऊ नीकहा दिन याद रहल करे ओकरा आ जबो कभी ऊ गाँवे आवे त मामी के गोड़ छुए जरुर आ जाइल करे बांसगांव.

त अबकियो आइल रहल दीपक बांसगांव. बहुते देर ले केंवाड़ी पीटला का बाद धीरे से मुनमुन के मिमियाइल हुई आवाज़ आई, ‘के ?’

‘अरे हम हईं, दीपक!’

‘अच्छा-अच्छा।’ मुनमुन पूछलसि, ‘केहू अउर त नइखे रउरा साथे ?’

‘ना. हम त अकेलहीं बानी.’

‘अच्छा-अच्छा!’ कहत मुनमुन कसहूं केंवाड़ी खोललसि. बोलल, ‘भइया भीतर आ जाईं.’

दीपक के भीतर आवते ऊ तुरते केंवाड़ी बन्द कर दिहलसि. मुनमुन आ मामी दुनू का चेहरा पर दहशत देखत दीपक पूछलसि, ‘आखि़र बात का बा ?’

‘बात अब एगो होखे त बतइबो करीं, भइया.’

मामिओ फफक के बोलली, ‘बस इहे जान जा कि मुनमुन के करम फूट गइल. अउर का बताईं ?’ फेर मामी आ मुनमुन बारी-बारी आपन यातना अउर अपमान कथा के रेशा-रेशा उधेड़ के रख दीहली. सब कुछ सुन के दीपक के ठकुआ लाग गइल. ऊ मुनमुन से कहलसि, ‘अगर अइसन रहुवे त तूं हमरा के बतवले रहतू. हम चल गइल रहतीं बिआह का पहिले जांच पड़ताल कर आइल रहतीं.’

‘कहां भइया, रउरा त दिल्ली में रहनी. आ हम एहिजा जितेंद्र भइया से कहबो कइनी त उहो टार गइलन.’ जितेंद्र दीपक के छोटका भाई हवे आ एहिजे शहर में रहेला. रेलवे में नौकरी करेला.

‘अच्छा!’ दीपक बोलल, ‘अइसन त ना करे के चाहत रहुवे ओरा. तबहियों तूं एक बेर फोन भा चिट्ठी पर हमरा के बता त सकते रहलू. भा जब हम शादी में आइल रहीें तबो बता सकत रहलू.’

‘अब शादी का समय रउरा करियो का सकत रहीं ?’

‘खै़र, रमेश, धीरज, भा तरुण के इ सब जवन हो रहल बा तवन बतवले बाड़ू ?’

‘ओह लोग के हमार ख़याल रहीत त ओह पियक्कड़ के हिम्मत रहुवे जे हमनि का साथे ई सब करीत ?’ दीपक का सोझा चाय के कप राखत मुनमुन बोलल, ‘आ फेर जे ई लोग हमार खयाल रखलहीं रहीत त ई पियक्कड़ पागल हमरा जिनिगी में आइले काहे रहीत ?’

‘ई त बा!’ दीपक गँवे से बोलल.

‘जानत बानी भइया, एह पियक्कड़ के चेहरा शादी में जयमाल का बाद फेर पिटईला का बादे हम एहिजा देखनी. लगभग पनरहिया दिन ओहिजा ससुराल में रहनी त कबो गलतियो से एकर शकल देखे के ना मिलल रहुवे. दू तीन दिन बाद हात थाक के एकरा बहीन आ भाइयन से पता कइल शुरु कइनी कि तोहार भईया सूतेलें कहवां ? त पता चलल कबो बगइचा में, त कबो टयूबवेल पर, कबो कहीं त कबो कहीं. ओहिजे एह गंजेड़ियन अफीमचियन आ चरसियन के महफ़िल जुटेला. त लत का फेरा में एह आदमी के अपना बीबी के सुधे ना रहुवे. अब भइल बा त आ के मार-पिटाई करे ला.’

‘बतावऽ तमाम नातेदारी, रिश्तेदारी में एह परिवार के लोग रश्क से देखेला. भाइयन के गुणगान करत ना थाके लोग.’

‘कुछ ना भइया चिराग़ तर अन्हेरा वइसहीं त कहावत नइखे बनल.’

‘से त बा.’

ई सब जान सुन के दीपक के मन ख़राब हो गइल/ सोचले रहल कि एक रात बांसगांव ठहर के जाई. मामा-मामी से ख़ूब बतियाई. बाकिर एहिजा के माहौल देखि के ऊ तुरते लवटे के तइयार हो गइल. मामी कहली, ‘अरे आज त रुक जा. साँझ ले मामो आ जइहन. बिना उनुका से मिललहीं चल जइबऽ ?’

‘मामा से त अबहीं कचहरी जा के भेंट कर लेब.’ दीपक बहाना बनवलसि, ‘शहर में कुछ ज़रूरी काम निपटावे के बा एहसे जाए के त पड़बे करी.’

‘अच्छा भइया थोड़िका देर त अउर रुक जाईं. अम्मा कहऽतिया त मान जाईं.’

‘चलऽ ठीक बा. तनिका देर रुक जात बानी.’ कहि के ऊ रुक गइल. देखत रहल कि घर के समृद्धि, दरिद्रता में तब्दील हो रहल बा. विपन्नता देह आ देह के कपड़ा-लत्तन, घर के सामान, भोजने आदि में ना बातोचीत में छितराइल पड़ल बा. बाते-बात में ऊ मुनमुन से रमेश, धीरज अउर तरुण के फ़ोन नंबर ले लिहलसि आ कहलसि कि, ‘देखऽ हम बतियावत बानी, फेर बताएब. आ हँ, राहुल के फोन आवे त हमार नंबर ओकरा के दे दीहऽ आ कहीहऽ कि हमरा से बात कर लेव. आ आपनो नंबर दऽ आ अपना ससुरारो के. ताकि हम पूछीं कि ऊ अइसन हरकत काहे करत बा ?’

मुनमुन सभकर नंबर दे के दीपक के नंबर अपनहूं ले लिहलसि आ बतवलसि कि, ‘धीरज भइया के फ़ोन लगावले बहुत मुश्किल होला. अव्वल ते उठे ना. आ उठबो करेला त कवनो कर्मचारी उठावेला आ उनुका के बाथरूम भा मीटिंग में होखला के बात कर के काट देबे ला. बाते ना करावे.’

‘चलऽ तबहियों देखत बानी.’

‘आ हँ, अगर जे हमरा ससुरारी में फ़ोन करब त हाथ गोड़ जोड़ के ओहनी के दिमाग अउर खराब मत करब. जवने बात करे के होखे सख्ती से करब.’

‘ना-ना. ई बात त हम सख़्ती से करबे करब कि ऊ एहिजा शराब पी के मत आइल करे. ई त कहहीं के पड़ी.’

‘करे के होखे त अबहियें बतिया लीं.’ मुनमुन उत्साहित होखत बोलल.

‘ना अबहीं ना.’ दीपक बोलल, ‘पहिले थोड़ प्लानिंग कर लीं. रमेश, धीरज वगै़रहो से राय मशविरा कर लीं. तब. जल्दबाजी में ई सब ठीक ना रही.’

‘चलीं. रउरा जवन ठीक समुझीँ.’ मुनमुन बोलल, ‘बाकिर भइया लोग रउरा के हमरा मसला पर शायदे कवनो राय मशविरा दी.’

‘काहें ?’

‘अरे कवनो राय मशविरा होखीत त ऊ लोग खुदे आ के कवनो उपाय ना कइले रहीत ?’ ऊ बोलल, ‘एक बेर घनश्याम राय का कहला पर रमेश भइया अइलन ज़रूर बाकिर समस्या के कवनो हल निकलववले बिना चल गइलन. फेर पलट के एक बेर फोनो पर ना पूछलन कि तूं लोग जिन्दा बाड़ू कि मर गइलू ? हमार त छोड़ीं, अम्मा बाबूओ जी के कबो कवनो खैर खबर ना लेबे लोग. घर के खरचा वरचा कइसे चलत बा, दवाई वग़ैरह के ख़रचा से कवनो भाइयन के कवनो मतलब नइखे रहल.’ कहत मुनमुन एकदम से अगिया गइल. आ ओकर अम्मा, माने दीपक के मामी बिना कुछ बोलले रोवे लगली. दीपको चुपे रह गइल.

माहौल ग़मगीन हो गइल रहुवे. फेर थोड़िका देर में मुनमुने सन्नाटा तोड़त बोलल, ‘जाने कवना जनम के दुश्मनी रहल जे बाबू जी आ भइया लोग मिलजुल के हमरा से निकलले बा. जीते जिनिगी हमरा के नरक का हवाले कर दिहले बा. दोसरे, ई आए दिन के मारपीट, बेइज़्ज़ती. अब त ऊ जब-तब हमरा स्कूलो पर आ धमकेला आ गारी गुफ्ता कर के चल जाला. आगे हमरा जिनिगी के का होखी, ई केहू नइखे सोचत.’ कवनो बढ़ियाइल नदी का तरह मुनमुन बोलते जात रहुवे.

‘एह मार-पीट के रिपोर्ट तूं पुलिस में काहे नइखू करत ?’

‘कइसे करीं ?’ मुनमुन बोलल, ‘एहू में त आपने बेइज़्ज़ती बा. अबहीं दू चारे घर के लोग जानत बा. फेर पूरा बांसगांव, गाँव-जवार सभे जान जाई. केकरा केकरा के सफ़ाई देत रहब? फेर अख़बार आ समाज हमरा के एकदमे जिये ना दीहें.’

‘से त बा.’

‘आ फेर संबंधन के झगड़ा पुलिस त निपटा ना सके. छिंछालेदर होखी से अलगा से.’ ऊ बोलल, ‘बाबू जी का लगे अइसन मामिला आवते रहेला, हमहूं देखते रहीलेंं. ’

‘ई त बा!’ दीपक बोलल, ‘बहुत समझदार हो गइल बाड़ू.’

‘हालात सभका के समझा देले भइया.’ मुनमुन बोलल, ‘हमरा ऊपर गुज़रत बा. हम ना समुझब त भला अउर के समुझी ?’

‘चलऽ तोहार हौसला अइसनो में बनल बा ई नीक बा.’ दीपक बोलल, ‘ई बहुते बड़ बात बा.’

‘अब रउरा जे कहीं.’ मुनमुन बोलल, ‘हमार नामे त नरक के पट्टा लिखवाइए दिहले बाड़न बाबू जी आ भइया लोग मिल के.’

‘अइसे मन छोट मत करऽ.’ ऊ बोलल, ‘कवनो कवनो उपाय निकलबे करी. बस ऊपर वाला पर भरोसा राखऽ.’

‘अच्छा ई सब बिना ऊपर वाला के मर्ज़िए से होखत बा का कि हम ओकरा पर भरोसा राखीं?’

दीपक चुपा गइल. थोड़का देर बाद साँझ हो गइल. मुनक्का राय कचहरी से अइलन त घर पर दीपक के देख के ख़ुश हो गइलन. बहुते ख़ुश. दीपक उनुकर गोड़ छूवलसि त ढेरहन आशीष देत ओकरा के अँकवारी बान्ह लीहलन. कहलन, ‘तब हो दीपक बाबू अउर का हाल चाल बा? घर दुआर कइसन बा ? बाल बच्चा सभ ठीक बाड़े सँ नू ? आ हमार दीदिया कइसन बिया ? जीजा जी कइसन बाड़न ?’

‘रउरा आशीर्वाद से सभे ठीक बा.’ दीपक बोलल, ‘आ रउरा कइसन बानी ?’

‘हम त दीपक बाबू बस जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए पर बानी.’ ऊ बइठले बइठल छत निहारत बोललन, ‘बस राम जी तनिका नज़र फेर लिहले बाड़न आजुकाल्ह हमरा से. अउर का कहीं !’ मुनक्का राय हताश होखत बोललन, ‘बाक़ी हालचाल मिलिए गइल होखी अबले !’ ऊ मुनमुन का ओर आंख से इशारा करत कहलन. दीपक उदास होखत मुंह बिचकावत सकारत में मूड़ी हिला दिहलसि.

‘बड़-बड़ मुक़दमा निपटवनी. जिरह बहस कइनी. दुनिया भर के झमेला देखनी. मयभावत महतारी देखनी आ जाने कतना गरमी बरसात देखनी. सबका के फेस कइनी. बहादुरी से फेस कइनी. ओह अभागा नालायक गिरधारी भाई के फे़स कइनी. बाकिर बाबू दीपक, जिनिगी के एह मोड़ पर एहिजा आ के हम पटकनी खा गइनी. पटका गइनी. एकर कवनो काट नइखे मिलत हमरा.’ कहत मुनक्का राय के गला रुंध गइल, आंख बहे लगली सँ. आगे ऊ अउर कुछ बोल ना पवलन.

दीपक फेरु चुपे रहल. मामा का घरे आइल प्रलय के आंच अब ऊ अउरी घन भाव से महसूस करत रहल. अइसन विपत्ति में ऊ अबहीं ले पारिवारिक स्तर पर केहू अउर के नइखे देखले. मामा के घर पसरल सन्नाटा टूटत ना रहुवे. गदबेर होखल जात रहुवे, साथे साथ सूरज के लालिओ कि अचके में बिजली आ गइल.

दीपक उठ खड़ा भइल. बोलल, ‘मामा जी रउरो से भेंट हो गइल अब आज्ञा दीं.’

‘अरे दीपक बाबू आज रहऽ. काल्हु जइहऽ.’ मुनक्का राय ओकरा के रोकत कहलन, ‘कुछ दुख-सुख बतियाएब.’

‘ना मामा जी कुछ ज़रूरी काम बा शहर में. जाइल ज़रूरी बा.’

‘ज़रूरी काम बा त फेर कइसे रोक सकीलें. जाईं.’ ईचिका खिझियात बोललन मुनक्का राय.

दीपक मामा मामी के गोड़ छुवलसि आ मुनमुन दीपक के. चलत-चलत दीपक फेरु मुनमुन से कहलसि, ‘घबरा मत, कवनो राह निकालत बानी.’

(पता ना कवन राह निकली जवना से मुनमुन के जिनिगी आगे चल पाई. आवत-जात रहीं. कुछ दिन में अगिला कड़ी ले के आएब. – अनुवादक)

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