अपना देश भी गजब का है. यहां की राजनीति की भाषा समझना आम आदमी के वश के बाहर की बात है. कहा कुछ जाएगा पर उसका अर्थ कुछ और ही होता है. जैसे कि हाल ही में कर्नाटक सरकार ने आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के लिये उर्दू की जानकारी आवश्यक अर्हता में शामिल कर दी है. कर्नाटक सरकार के महिला और बाल कल्याण विभाग ने एक अधिसूचना जारी कर के Mudigere मुडिगेरे और Chikkamagaluru चिकमगुरु जिलों में आंगनबाड़ी शिक्षकों के लिये उर्दू की जानकारी को आवश्यक अर्हता बना दिया है.
ये दोनों जिले मुस्लिम बहुसंख्यक जिले हैं. पर यह यहीं तक सीमित नहीं रहने वाली. यह एक टेस्ट बैलून है. एक साधारण सरकारी अधिसूचना के माध्यम से एक नौकरी विशेष के लिये मुस्लिम आरक्षण लगभग शतप्रतिशत कर दिया गया है जो किसी भी कानूनी या तर्क संगत तरीके से नहीं किया जा सकता था. यही राजनीति की भाषा होती है. सेकूलर का मतलब धर्म निरपेक्ष या पंथ निरपेक्ष न होकर मुस्लिम तुष्टिकरण का माध्यम बना दिया गया है. गाहे बगाहे इस देश के अधिकतर राजनीतिक दल या तो मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति करते हैं या हीन भावना से ग्रसित होकर इस तुष्टिकरण के विरुद्ध कुछ कर या कह नहीं पाते. सबको मालूम है कि मुसलमानों का वोट भाजपा को शायद ही मिलता है पर मोदी में तब भी यह साहस नहीं होता कि वह इस तुष्टिकरण का विरोध कर सकें. उन्होंने तो सबका साथ, सबका विश्वास का नारा ही दे दिया. अलग बात है कि हाल के लोकसभा चुनावों के बाद यह नारा सुनाई देना बन्द हो गया है. सो राजनीति की भाषा शब्दों के अलग अर्थ परिभाषित कर देती है.
अब आइये भाषा की राजनीति पर एक नजर डाल लिया जाय. देश की आजादी के बाद जो राज्य बने या बनाये गये उनका परिसीमन प्रशासनिक या भोगोलिक सुविधा के अनुसार न होकर एक विभाजनकारी आधार पर किया गया. मोहनदास और जवाहर लाल की राजनीति ने देश का विभाजन पंथ के आधार पर करा दिया. मुसलमानों का उनुका देश मिल गया पर हिन्दुओं को उनुका देश नहीं मिल पाया. असल में ये चतुर राजनेता जानते थे कि भारत कि पंथ, मजहब, जाति, भाषा के आधार पर विभाजित कर के ही यहां राज किया जा सकता है. भाषा के आधार पर बने राज्य इस विभाजनकारी राजनीति को हमेशा पल्लवित पुष्पित करते रहेंगे.
और भाषा की राजनीति में भी वही हुआ जो देश की आम राजनीति में हो रहा है. जो सबसे बड़ा समूह था हिन्दी वालों का उन्होंने हिन्दी की प्रमुखता बनाये रखने के लिये बहुत सारी देशज भाषाओं के अस्तित्व से ही इंकार कर दिया. शुरुआती जनगणना में भाषा आधारित जनगणना भी हुआ करती थी. साल 2001 में आखिरी जनगणना करायी गयी जिसमें इन देशज भाषाओं का अस्तित्व सकारा गया. पर उसके बाद से इन भाषाओं की अलग गिनिती हो रोक दी गयी.
इस देश के संविधान में एक अनुसूची शामिल है जिसे आठवीं अनुसूची के नाम से जाना जाता है. इस आठवीं अनुसूची में शुरु में मात्र चौदह भाषायें शामिल थीं पर बाद में एकाधिक सशोधनों के जरिये आठ और भाषाओं को जोड. लिया गया. अब इस आठवीं अुनसूची में बाइस भाषायें शामिल हैं जिनमें हिन्दी बहुल इलाके की देशज भाषायें वहिष्कृत मान ली गई हैं. एक अपवाद हे मैथिली.
आज जब भाषा की राजनीति पर बात निकल ही गई है तो चलिये जानते हैं कि साल 2001 की जनगणना में भाषाई जनगणना का परिणाम क्या था. जनगणना कर्मिओं को सख्त निर्दश था कि वे बतायी गयी भाषा का पूरा नाम लिखें और उन्हें यह तय करने का अधिकार नहीं है कि कौन सी भाषा किस भाषा की उपभाषा या बोली है. इसका परिणाम यह रहा कि 2001 की जनगणना में 6661, जी हां छह हजार छह सौ इकसठ, भाषाओं का नाम सामने आया. इस सूची का गहन विश्लेषण करके विशेषज्ञों ने 1635 मातृभाषायें मानीं तथा 1957 भाषाओं को अन्य के समूह में डाल दिया गया. अब 1635 भाषाओं का विस्लेषण किया गया तथा जिस मातृभाषा के बोलने वाले दस हजार से अधिक थे उनको एक बड़े समूह में शामिल कर लिया गया. अन्तत: 122 भाषा नामों को इस जनगणना की रपट में शामिल किया गया.
इन 122 भाषाओं को फिर दो वर्गों में विभाजित किया गया. पहले वर्ग में वे भाषायें आईं जो संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है. बाकी भाषाओं को उस वर्ग में शामिल कर लिया गया जो अनुसूचित भाषायें नहीं थीं और इसके अलावे एक उपवर्ग और बना दिया गया जिसमें बाकी की भाषायें शामिल कर ली गईं जो दो बड़े वर्गों में शामिल नहीं हो पाईं.
यहां यह भी रेखांकित कर देना आवश्यक है कि साल 1991 की जनगणना में 18 भाषायें ही थीं आठवीं अनुसूची में. बोडो, डोगरी, संथाली, और मैथिली भाषायें बाद में शामिल की गयीं.
साल 2001 की जनगणना में 234 भाषायें मानी गईं. इनमें से 93 मातृभाषायें अनुसूचित भाषा वर्ग में शामिल की गईं तथा 141 भाषायें अन-अनुसूचित भाषा वर्ग मेंं डाल दी गईं.
नीचे की तालिका में उन भाषाओं का जिक्र है जिनको हिन्दी में शामिल माना गया. इस श्रेणी में कुल 49 भाषायें हैं.
यहां यह भी स्पष्ट कर देना है कि हो सकता है कुछ भाषाओं का नाम रोमन से देवनागरी लिपि में करने के दौरान अशुद्धि आ गई हो. इसके लिये मैं क्षमाप्रार्थी हूं.
दूसरी बात कि कुल जोड़ कुल जोड़ 421048442 आ रहा है जबकि मूल रपट में यह संख्या 422048642 है. हो सकता है कि कहीं कुछ गलतियां हो गई हैं. पर इससे इसका चरित्र नहीं बदलता.
भाषा | बोलने वालों की संख्या |
हिन्दी भोजपुरी राजस्थानी मागधी/मगही छतीसगढ़ी हरयाणवी मारवाड़ी मालवी मेवाड़ी खोर्था/खोट्टा बुन्देली/बुन्देलखण्डी पहाड़ी लमानी/लंबाडी अवधी हरौती गढ़वाली निमाडी सदरी कुमायूनी धुनधारी बघेली/बघेल खण्डी सरगुजिया बागड़ी राजस्थानी बंजारी नागपुरिया सूरजापुरी कांगड़ी गुर्जरी मेवाती मंडियाली ब्रजभाषा करमाली थार पवारी/पौवारी पांचपरगनिया कुलवी सुगाली लोधी चंबाली जौनसारी लरिया भद्रवाही भरमौरी/गद्दी चुराही सोंदवारी खड़ी बोली सिरमौरी लबानी पंगवाली खैरारी अन्य कुल जोड़ |
257919635 33099497 18355613 13978565 13260186 7997192 7936183 5565167 5091697 4725927 3072147 2832825 2707562 2529308 2462867 2267314 2148146 2044776 2003583 1871130 1865011 1458533 1434123 1259821 1242586 1217019 1122843 762332 645291 611930 574245 425920 425745 193769 170770 160736 139321 126589 114733 67697 66918 66246 61199 59221 47730 31144 22162 16285 11937 14777266 421048442 |
साल 2001 की जनगणना के बाद भाषाओं का इतना गहन अध्ययन नहीं किया गया. इसका उद्देश्य तो वही लोग बता सकते हैं जो सरकार चलाते हैं या जनगणना का संचालन तथा संपादन करते हैं.
संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का आधार क्या है, यह भी स्पष्ट नहीं बताया गया है आजतक. हिन्दी वाले क्षेत्रों की भाषाओं को दबा कर रखने का यह एक कुत्सित प्रयास माना जाय तो यह कतई गलत नहीं होगा.
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