लोक कवि अब गाते नहीं – १७

(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)

सोरहवाँ कड़ी में रउरा पढ़ले रहीं कि कइसे आपन दलाली वसूले का फेर में गणेश तिवारी अपने पट्टीदार फौजी तिवारी का खिलाफ पोलदना के हथियार बनवलन. बाकिर जब बाद में पोलदनो पलटि गइल त ओकर समूल नाश करवा दिहलन फौजी तिवारी के बेटा से. एह सब का बावजूद फौजी तिवारी के बेटा उनकर असलियत जान लिहले रहुवे आ एहसे उनुका के अपना लगे सटे ना दिहलस. ओहिजा से गणेश तिवारी आपन पोंछि सटकवले लवटि आइल रहले. अब आगे पढ़ीं…


त ई आ अइसनके तमाम कथा कहानी के केंद्र में रहे वाला इहे गणेश तिवारी अब भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादी में रोड़ा बने के भूमिका बान्हत रहले. कारण दू गो रहे. पहिला त ई कि भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादी ख़ातिर पट्टीदारी के लोगन में से चुनल “संभ्रांत” लोग का सूची में लोक कवि उनुकर नाम काहे ना रखले. आ नाम राखल त फरका भेंटो कइल जरूरी ना समुझले. तब जब कि ऊ उनुकर “चेला” हवे. दोसरका कारण ई रहे कि उनुकर जेब एह शादी में कइसे किनारे रह गइल ? त एह तरह अहम आ पइसा दुनु के भूख उनुकर तुष्ट ना होत रहुवे. से ऊ चैन से कइसे बइठल रहतन भला ? ख़ास कर तब आ जब लड़िकी के ख़ानदान ऐबी होखो. बाप एड्स से मरल रहुवे आ आजा जेल में रहल ! तबहियो उनुका के पूछल ना गइल. त का उनुकर “प्रासंगिकता” गांव जवार में ख़तरा में पड़ गइल रहे ? का होखी उनुका विलेज बैरिस्टरी के ? का होखी उनुकर बियहकटवा वाला कलाकारी के ?

वइसे त हर गांव, हर जवार के हवा में शादी काटे वाला बियहकटवा बिचरते रहेले. कवनो नया रूप में, कवनो पुरान रूप में त कवनो बहुरुपिया रूप में. लेकिन एह सब कुछ का बावजूद गणेश तिवारी के कवनो सानी ना रहे. जवना सफाई, जवना सलीका, जवना सादगी से ऊ बियाह काटसु ओह पर नीमन-निमन लगो न्यौछावर हो जायं. लड़की होखो भा लड़िका सबकर ऐब ऊ एह चतुराई से उघाड़सु आ लगभग तारीफ के पुल बान्हत कि लोग लाजवाब हो जाव. अउर उनुकर “काम” अनायासे हो जाव. अब कि जइसे कवनो लड़िकी के मसला होखे त ऊ बतावसु, “बहुते सुंदर, बहुते सुशील. पढ़े लिखे में अव्वल. हर काम में “निपुण”. अइसन सुशील लड़िकी रउरा हजार वाट क बल्ब बार के खोजीं तबो ना मिली. आ सुंदर अतना कि बाप रे बाप पांच छ गो ल लौंडा पगला चुकल बाड़े.”
“का मतलब?”
“अरे, दू ठो तो अबहिये मेंटल अस्पताल से वापिस आइल बाड़े”
“इ काहें?”
“अरे उनहन बेचारन के का दोष. ऊ लड़िकी हईये बिया एतना सुंदर.” ऊ बतावसु, “बड़े-बड़े विश्वामित्र पगला जायँ.”
“ओकरा सुंदरता से इनहन के पगलइला के का मतलब ?
“ए भाई, चार दिन आप से बतियाए आ पँचवा दिने दोसरा से बोले-बतियाए लागे, फेर तिसरा, चउथा से. त बकिया त पगलइबे नू करीहें !”
“ई का कहत बानीं आप?” पूछे वाला के इशारा होखे कि, “आवारा हियऽ का?”
“बाकी लड़िकी गुण के खान हियऽ.” गणेश तिवारी अगिला के सवाल अउर इशारा जानतबूझत पी जासु आ तारीफ के पुल बान्हत जासु. उनुकर काम हो जाव.
कहीं-कहीं ऊ लड़िकी के “हाई हील” के तारीफ कर बइठसु बाकिर इशारा साफ होखे कि नाटी हियऽ. त कहीं ऊ लड़िकी के मेकअप कला के तारीफ करत इशारा करसु कि लड़िकी सांवर हवे. बात अउर बढ़ावे के होखे त ऊ डाक्टर, चमइन, दाई, नर्स वगैरहो शब्द हवा में बेवजह उछाल देसु कवनो ना कवनो हवाले आ इशारा एबार्सन क होखे. भैंगी आंख, टेढ़ी चाल, मगरूर, घुंईस, गोहुवन जइसन पुरनको टोटका ऊ सुरती ठोंकते खात आजमा जासु. उनका युक्तियन आ उक्तियन क कवनो एक चौहद्दी, कवनो एक फ्रेम, कवनो एक स्टाइल ना होखत रहे. ऊ त रोजे नया होत रहे. महतारी के झगड़ालू होखल, मामा के गुंडा होखल, बाप के शराबी होखल, भाई के लुक्कड़ भा लखैरा होखल वगैरहो ऊ “अनजानते” सुरती थूकत-खांसत परोस देसु. लेकिन साथ-साथ इहो संपुट जोड़त जासु कि, “लेकिन लड़िकी हियऽ गुण के खान.” फेर अति सुशील, अति सुंदर समेत हर काम में निपुण, पढ़ाई-लिखाई में अव्वल, गृह कार्य में दक्ष वगैरह.
इहे-इहे आ अइसने-अइसन तरकीब ऊ लड़िकनो पर आजमावसु. “बहुते होनहार, बहुते वीर” कहत ओकरा “संगत” के बखान बघार जासु आ काम हो जाव.

एक बेर त गजबे हो गइल. एगो लड़िका के बाप बड़ा जतन से ओह दिन बेटा के तिलक के दिन निकलववलन जवना दिने का ओह दिन का आगहू-पाछा गांव में गणेश तिवारी के मौजुदगी के अनेसा ना रहल. बाकिर ना जाने कहाँ से ऐन तिलक चढ़े से कुछ समय पहिले ऊ गांव में ना सिरिफ प्रगट हो गइलें बलुक ओकरा घरे हाजिरो हो गइले. सिरिफ हाजिरे ना भइलन. जाकेट से हाथ निकालत गांधी टोपी ठीक करत-पहिनत तिलक चढ़ावे आइल तिलकहरुवने का बीचे जा के बइठ गइलन. उनुका ओहिजा बइठते घर भर के लोग के हाथ गोड़ फूल गइल. दिल धकधकाए लागल. लोगो तिलकहरुवन के आवभगत छोड़ के गणेश तिवारी के आवभगत शुरू कर दिहल. लड़िका के बाप आ बड़का भाई गणेश तिवारी क आजू-बाजू आपन ड्यूटी लगा लिहले. जेहसे उनुका सम्मान में कवनो कमी ना आवे आ दोसरे, उनुका मुंह से कहीं लड़िका के तारीफ मत शुरू हो जाव. गणेश तिवारी के नाश्ता अबहिं चलत रहल आ ऊ ठीक वइसहीं काबू में रहलें जइसे अख़बारन में दंगा वगैरह का बाद ख़बरन के मथैला छपेला “स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में.” त “तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में” वाला हालाते में लड़िका के बाप के एगो उपाय सूझल कि काहे ना बेटा के बोलवा के गणेश तिवारी के गोड़ छूआ के इनकर आशीर्वाद दिआ दिहल जाव. जेहसे गणेश तिवारी के अहं तुष्ट हो जाव आ तिलक बिआह बिना विघ्न-बाधा संपन्न हो जाव. आ ऊ इहे कइलन. तेजी से घर में गइले आ ओही फुर्ती से बेटा के लिहले चेहरा पर अधिके उत्साह आ मुसकान टांकत गणेश तिवारी का लगे ले गइलन जे बीच तिलकहरु स्पेशल नाश्ता पर जुटल रहले. लड़िका के देखते गणेश तिवारी धोती के एगो कोर उठवले आ मुंह पोंछत लड़िका के बापो से बेसी मुसकान आ उत्साह अपना चेहरा पर टांक लिहले आ आंख के कैमरा “क्लोज शाट” में लड़िके पर टिका दिहले. बाप के इशारा पर लड़िका झुकल आ दनुबु हाथे गणेश तिवारी के दुनु गोड़ दू दू बेर एके लाइन में छुवत चरण-स्पर्श करते रहल कि गणेश तिवारी आशीर्वादन के झड़ी लगा दिहले. सगरी विशेषण, सगरी आशीर्वाद देत आखिर में ऊ आपन ब्रह्ममास्त्र फेंक दिहलन, “जियऽ बेटा! पढ़ाई लिखाई में त अव्वल रहबे कइलऽ, नौकरीओ तोहरा अव्वल मिल गइल, अब भगवान के आशीर्वाद से तोहार बिआहो होखत बा. बस भगवान क कृपा से तोहर मिरिगियो ठीक हो जाव त का कहे के!” ऊ कहलन, “चलऽ हमार पूरा-पूरा आशीर्वाद बा !” कहिके ऊ लड़िका के पीठ थपथपवले. तिलकहरुअन का ओर मुसुकात मुखातिब भइलन आ लगभग वीर रस में बोललन, “हमरा गांव, हमरा कुल के शान हउवन ई.” ऊ आगे जोड़लन, “रतन हवे रतन. आप लोग बहुते खुशनसीब हईं जे अइसन योग्य आ होनहार लड़िका के आपन दामाद चुननी.” कहिके ऊ उठ खड़ा होत कहले, “लमहर यात्रा से लवटल बानी. थाकल बानी. आराम कइल जरूरी बा. माफ करब, चलत बानी. आज्ञा दीं.” कहिके दुनु हाथ ऊ जोड़लन आ ओहिजा से चल दिहलन.
गणेश तिवारी त ओहिजा से चल दिहले बाकिर तिलकहरुअन का आंखिन आ मन में सवालन के सागर छोड़ गइले. पहिले त आंखिये-आंखि में ई सवाल सुनुगल. फेर जल्दिये जबान पर भदके लागल इ सवाल कि, “लड़िका के मिर्गी आवेला ?” कि, “लड़िका त मिर्गी क रोगी ह?” कि, “मिर्गी के रोगी लड़िका से शादी कइसे हो सकेला?” कि, “लड़िकी के जिनिगी खराब करे के बा का?” आ आखिरकार एह सवालन के आग लहकिए गइल. लड़िका के बाप, भाई, नात-रिश्तेदार आ गांव के लोगो सफाई देत रह गइल, कसम खात रह गइल कि, “लड़िका के मिर्गी ना आवे,” कि “लड़िका के मिर्गी आइत त नौकरी कइसे मिलीत ?” कि “अगर शक होइए गइल बा त डाक्टर से जँचवा लीं!” आदि-आदि. बाकिर एह सफाइयन आ किरियन के असर तिलकहरुअन पर जरिको ना पड़ल. आ ऊ लोग जवन कहाला थरिया-परात, फल-मिठाई, कपड़ा-लत्ता, पइसा वगैरह लिहले ओहिजा से उठ खड़ा भइले. फेर बिना तिलक चढ़वलही चल गइलन. ई कहत कि, “लड़िकी के जिनिगी बरबाद होखे से बाच गइल.” साथही गणेश तिवारी ओरि इंगितो करत कि, “भला होखो ओह शरीफ आदमी के जे समय रहिते आँख खोल दिहलसि. नाहीं त हमनी का त फँसिये गइल रहीं सँ. लड़िकी के जिनिगी बरबाद हो जाइत!”

जइसे अनायासे आशीर्वाद दे के गणेश तिवारी एह लड़िका के निपटवले रहले वइसही भुल्लन तिवारी के नतिनी का शादीओ में ऊ अनायासे भाव में सायास निपटावे ख़ातिर जुट गइल रहले. भुल्लन तिवारी के नातिन के कम लोक कवि के जेब के बहाने अपना गांठ के चिंता उनुका के बेसी तेज कइले रहुवे. बाति वइसहीं बिगड़ल रहुवे, गणेश तिवारी के तेजी आग में घीव के काम कइलसि. आखिरकार बात लोक कवि ले चहुँपल. पहुंचवलसि भुल्लन तिवारी के बेटा के साला लखनऊ में आ कहलसि कि, “बहिन के भाग में अभागे लिखल रहे लागत बा भगिनी का भाग में एहुसे बड़ अभाग लिखल बा.”
“घबराईं मत.” लोक कवि उनुका के तोस दिहलन. कहलन कि, “सब ठीक हो जाई.”
“कइसे ठीक हो जाई ?” साला बोलल, “जब गणेश तिवारी के जिन्न ओकरा बिआह का पाछा लाग गइल बा. जहँवे जाईं आपसे पहिले गणेश तिवारी चोखा चटनी लगा के सब मामिला पहिलही बिगाड़ चुकल रहेलें !”
“देखीं अब हम का कहीं, आपो भी ब्राह्मण हईं. हमरा ला देवता तुल्य हईं बाकिर बुरा मत मानब.” लोक कवि बोले, “गणेशो तिवारी ब्राह्मण हउवें. हमार आदरणीय हउवें. बाकिर हउवन कुत्ता. कुत्तो से बदतर!” लोक कवि जोड़लन, “कुत्ता के इलाज हम जानीलें. दू चार हजार मुँह पर मार देब त ई गुर्राए, भूंके वाला कुत्ता दुम हिलावे लागी.”
“लेकिन कब? जब सबहर जवार जान जाई तब? जब सब लोग थू-थू करे लागी तब?”
“नाहीं जल्दिए.” लोक कवि बोलले, “अब इहै गणेश तिवारिए आप के भगिनी के तारीफ करी.”
“तारीफ त करते बा.” साला बोलल, “तारीफे कर के त ऊ काम बिगाड़त बा. कि लड़की सुंदर हवे, सुशील हवे. बाकिर बाप अघोड़ी रहल. एड्स से मर गइल आ आजा खूनी ह. जेल में बंद बा.”
“त ई बतिया कइसे छुपा लेब आप आ हम?”
“नाहीं बाति एहीं ले थोड़े बा.” ऊ बोलल, “गणेश तिवारी प्रचारित करत बाड़े कि भुल्लन तिवारी के पूरा परिवार के एड्स हो गइल बा. साथ ही भगिनियो के नाम ऊ नत्थी कर देत बाड़े.”
“भगिनिया के कइसे नत्थी कर लीहें?” लोक कवि भड़कले.
“ऊ अइसे कि….. साला बोलल, “जाए दीं ऊ बहुते गिरल बात कहत बाड़े.”
“का कहतारें?” धीरे से बुदबुदइले लोक कवि, “अब हमरा से छुपवला से का फायदा? आखि़र ऊ त कहते बाड़ब नू?”
“ऊ कहत बाड़े कि जीजा जी अघोड़ी रहलन बेटी तक के ना छोड़ले. से बेटीओ के एड्स हो गइल बा.”
“बहुते कमीना बा!” कहत लोक कवि पुच्च से मुंह में दबाइल सुरती थूकलें. बोलले, “आप चलीं, हम जल्दिए गणेश तिवारी के लाइन पर लेआवत बानी.” वह बोलले, “ई बात रहल त पहिलवैं बतवले रहीतऽ. एह कमीना कुत्ता के इलाज हम कर दिहले रहतीं.”
“ठीक बा त जइसे एतना देखें हैं आप तनी एतना अउर देख लीं.” कहिके साला उठ खड़ा भइल.
“ठीक बा, त फेर प्रणाम!” कहिके लोक कवि दुनु हाथ जोड़ लिहले.
भुल्लन तिवारी के बेटा के साला के जाते लोक कवि चेयरमैन साहब के फोन मिलवलन आ सगरी रामकहानी बतवलन. चेयरमैन साहब छूटते कहले, “जवन पइसा तू ओकरा के दिहल चाहत बाड़ऽ उहे पइसा कवनो लठैत भा गुंडा के दे के ओकर कुट्टम्मस करवा द. भर हीक कुटवा द, हाथ पैर तूड़वा द. सगरी नारदपना भूला जाई.”
“ई ठीक होखी भला?” लोक कवि ने पूछा.
“काहें खराब का होखी ? चेयरमैनो साहब पूछलन. कहलन, “अइसन कमीनन का साथे इहे करे के चाहीं.”
“आप नइखीं जानत ऊ दलाल ह. हाथ गोड़ टूटला का बादो ऊ अइसन डरामा रच लीहि कि लेबे के देबे पड़ जाई.” लोक कवि बोले, “जे अइसे मारपीट से ऊ सुधरे वाला रहीत त अबले कई राउंड ऊ पिट-पिटा चुकल रहीत. बड़ा तिकड़मी ह से आजु ले कब्बो नइखे पिटाइल.” ऊ कहलन, “खादी वादी पहिर के अहिंसा-पहिंसा वइसै बोलत रहेला. कहीं पुलिस-फुलिस के फेर पड़ गइल त बदनामी हो जाई.”
“त का कइल जाव? तूहीं बतावऽ !”
“बोले के का बा. चलि के कुछ पइसा ओकरा मुँह पर मार आवे के बा!”
“त एहमें हम का करीं?”
“तनी सथवां चलि चली. अउर का!”
“तोहार शैडो त हईं ना कि हरदम चलल चलीं तोहरा साथे!”
“का कहत बानी चेयरमैन साहब!” लोक कवि बोलले, “आप त हमरे गार्जियन हईं.”
“ई बात है?” फोने पर ठहाका मारत चेयरमैन साहब कहले, “त चलऽ कब चले के बा ?”
“नहीं, दू चार ठो पोरोगराम एने लागल बा, निपटा लीं त बतावत बानी.” लोक कवि कहले, “असल में का बा कि एह तरे के बातचीत में आप के साथ होला से मामिला बैलेंस रहेला अउर बिगड़ल काम बनि जाला.”
“ठीक बा, ठीक बा. अधिका चंपी मत करऽ. जब चले होखी त बतइहऽ.” ऊ रुकले आ कहले, “अरे हँ, आजु दुपहरिया में का करत बाड़ऽ?”
“कुछ नाईं, तनी रिहर्सल करब कलाकारन का साथे.”
“त ठीक बा. तनी बीयर-सीयर ठंडी-वंडा मंगवा लीहऽ हम आएब.” ऊ कहलन, “तोहरा के आ तोहरा रिहर्सल के डिस्टर्ब ना करब. चुपचाप पीयत रहब आ तोहार रिहर्सल देखत रहब.”
“हँ, बाकिर लड़िकियन का साथे नोचा-नोची मत करब.”
“का बेवकूफी बतियावत बाड़ऽ.” ऊ कहले, “तू बस बीयर मंगवा रखीहऽ.”
“ठीक बा आई!” लोक कवि बेमन से कहले.

चेयरमैन साहब बीच दुपहरिया लोक कवि किहाँ पहुंच गइले. रिहर्सल अबही शुरूओ ना भइल रहे लेकिन चेयरमैन साहब के बीयर शुरू हो गइल. बीयर का साथे लइया चना, मूंगफली आ पनीर के कुछ टुकड़ा मंगवा लिहल रहे. एक बोतल बीयर जब ऊ पी चुकले आ दोसरकी खोले लगले त बोतल खोलत-खोलत ऊ लोक कवि से बेलाग हो के कहले, “कुछ मटन-चिकन मंगवावऽ आ ह्विस्कीओ!” ऊ जोड़लें, “अब ख़ाली बीयर-शीयर से दुपहरिया कटे वाली नइखे.”
“अरे, लेकिन रिहर्सल होखल बाकी बा अबही.” लोक कवि हिचकत संकोच घोरत कहले.
“रिहर्सल के रोकत बा?” चेयरमैन साहब कहले, “तू रिहर्सल करत-करवावत रह. हम खलल ना डालब. किचबिच-किचबिच मत करऽ, चुपचाप मंगवा ल.” कहिके ऊ जेब से कुछ रुपिया निकाल लोक कवि ओर फेंक दिहले.
मन मार लोक कवि रुपिया उठवले, एगो चेला के बोलवले आ सब चीज ले आवे खातिर बाजार भेज दिहले. एही बीच रिहर्सलो शुरू हो गइल. तीन गो लड़िकी मिल के नाचल गावल शुरू कर दिहली. हारमोनियम, ढोलक, बैंजो, गिटार, झाल, ड्रम बाजे लागल. लड़िकिया सब नाचत गावत रहलीं, “लागऽता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला/आलू, केला खइलीं त एतना मोटइलीं/दिनवा में खा लेहलीं, दू-दू रसगुल्ला!” अउर बाकायदा झुल्ला देखा-देखा, आंख मटका-मटका, कुल्हा अउर छातियन के स्पेशल मूवमेंट्स के साथे गावत रहलीं. अउर एने ह्विस्की के चुस्की ले-ले के चेयरमैन साहब भर-भर आंख “ई सब” देखत रहले. देखत का रहले पूरा-पूरा मजा लेत रहले. गाना के रिहर्सल ख़तम भइल त चेयरमैन साहब दू गो लड़िकियन के अपना तरफ बोलवले. दुनु सकुचात चहुँपली सँ त ओहनी के आजू-बाजू कुर्सियन पर बइठवले. ओहनी के गायकी के तारीफ कइलन. फेर एने ओने के बतियावत ऊ एगो लड़िकी के गाल सुहरावे लगलन. गाल सुहरावत-सुहरावत कहले, “एकरा के तनी चिकन आ सुंदर बनावऽ!” लड़िकी लजाइल. सकुचात कहलसि, “प्रोग्राम में मेकअप कर लिहले. सब ठीक हो जाला.”
“कुछ ना!” चेयरमैन साहब बोलले, “मेकअप से कब ले काम चली? जवानीए में मेकअप करत बाड़ू त बुढ़ापा में का करबू” ऊ कहले, “कुछ जूस वगैरह पियऽ, फल फ्रूट खा!” कहत ऊ अचानके ओकर ब्रेस्ट दबावे लगले, “इहो बहुत ढीला बा. एकरो के टाइट करऽ!” लड़की अफना के उठ खड़ा भइल त ओकर हिप के लगभग दबावत आ थपथपावत कहले, “इहो ढीला बा, एकरो के टाइट करऽ. कुछ इक्सरसाइज वगैरह कइल करऽ. अबही जवान बाड़ू, अबहिये से ई सब ढीला हो जाई त काम कइसे चली?” ऊ सिगरेट के एगो लमहर कश खींचत कहले, “सब टाइट राखऽ. जमाना टाइट के बा. अउर अफना के भागत कहाँ बाड़ू? बैठऽ एहिजा अबहीं तोहरा के कुछ अउर बतावे के बा.” लेकिन ऊ लड़िकी “अबहीं अइनी!” कहत बाहर निकल गइल. त चेयरमैन साहब दोसरकी लड़िकी ओर मुखातिब भइलन जवन बइठल-बइठल मतलब भरल तरीका से मुसुकात रहुवे. त ओकरा के मुसुकात देख चेयरमैनो साहब मुसुकात कहले, “का हो तू काहें मुसुकात बाड़ू ?”
“ऊ लड़िकी अबही नया बिया चेयरमैन साहब!” ऊ इठलात कहलसि, “अबही रंग नइखे चढ़ल ओकरा पर!”
“बाकिर तू त रंगा गइल बाड़ू !” ओकर दुनु गाल मीसत चेयरमैन साहब बहकत बोलले.
“ई सब हमरहू साथे मत करीं चेयरमैन साहब.” ऊ तनिका सकुचात, लजात अउर लगभग विरोध दर्ज करावत कहलसि, “हमार भाई अबहिये आए वाला बा. कहीं देख ली त मुश्किल हो जाई.”
“का मुश्किल हो जाई?” ऊ ओकरा उरोज का तरफ एगो हाथ बढ़ावत कहले, “गोली मार दी का?”
“हां, मार दी गोली!” ऊ चेयरमैन साहब के हाथ बीचे में दुनु हाथे रोकत कहलसि, “झाड़ू, जूता, गोली जवने पाई मार दीहि!”
ई सुनते चेयरमैन साहब थथम गइले, “का गुंडा, मवाली ह का?”
“ह तो ना गुंडा मवाली पर जे आप सभे अइसहीं करब त बन जाई!” ऊ कहलसि, “ऊ त हमरा गवलो-नचला पर बहुते ऐतराज मचावेला. ऊ ना चाहे कि हम प्रोग्राम करीं.”
“काहें?” चेयरमैन साहब के सनक अबले सुन्न पड़ गइल रहुवे. से ऊ दुनारा बहुते सर्द ढंग से बोलले, “काहें?”
“ऊ कहेला कि रेडियो, टी.वी. तकले त ठीक बा. ज्यादा से ज्यादा सरकारी कार्यक्रम कर ल बस. बाकी प्राइवेट कार्यक्रम से ऊ भड़केला.”
“काहें?”
“ऊ कहेला भजन, गीत, गजल तक ले त ठीक बा बाकिर ई फिल्मी उल्मी गाना, छपरा हिले बलिया हिले टाइप गाना मत गावल करऽ.” ऊ रुकल आ कहलसि, “ऊ तो हमरे के कहेला कि ना मनबू त एक दिन ऐन कार्यक्रम में गोली मार देब आ जेल चलि जाएब!”
“बड़ा डैंजर है साला!” सिगरेट झाड़त चेयरमैन साहब उठ खड़ा भइले. खखारत ऊ लोक कवि के आवाज लगवलन आ कहले, “तोहार अड्डा बहुते ख़तरनाक होखल जात बा. हम त जात बानी.” कहिके ऊ साचहू ओहिजा से चल दिहले. लोक कवि उनुका पीछे-पीछे लगबो कइलन कि, “खाना मंगवावत बानी खा-पी के जाएब.” तबहियो ऊ ना मनले त लोक कवि कहलेले, “एक आध पेग दारू अउर हो जाव!” बाकिर चेयरमैन साहब बिन बोलले हाथ हिला के मना करत बाहर आ के अपना एंबेसडर में बइठ गइले आ ड्राइवर के इशारा कइलन कि बिना कवनो देरी कइले अब एहिजा से निकल चलऽ.
उनुकर एंबेसडर स्टार्ट हो गइल. चेयरमैन साहब चल गइले.
भीतर वापिस आ के लोक कवि ओह लड़िकी से हंसत कहले, “मीनू तू त आजु चेयरमैन साहब के हवे टाइट कर दिहलू!”
“का करतीं गुरु जी आखि़र!” ऊ तनिका संकोच में खुशी घोरत कहलसि, “ऊ त जब आप आंख मरनी तबहिये हम समझ गइनी कि अब चेयरमैन साहब के फुटावे के बा.”
“ऊ त ठीक बा बाकिर ऊ तोहार कवन भाई ह जवन एतना बवाली ह?” लोक कवि पूछले, “ओकरा के एहिजा मत ले आइल करऽ. डेंजर लोग के एहिजा कलाकारन में जरूरत नइखे.”
“का गुरु जी आपहू चेयरमैन साहब के तरे फोकट में घबरा गइनी.” मीनू बोलल, “कहीं कवनो अइसन भाई हमारा बा? अरे, हमार भाई त एगो भाई बा जे भारी पियक्कड़ ह. हमेशा पी के मरल रहेला. ओकरा अपने बीवी बच्चा के फिकिर ना रहे त हमार फिकिर कहाँ से करी?” ऊ ककहलिस, “आ जे अइसही फिकिर करीत त म्यूजिक पार्टियन में घूम-घूम के प्रोग्रामे काहें करतीं?”
“तू त बड़हन कलाकार हऊ.” मीनू के हिप पर हलुके चिकोटी काटत, सुहुरावत लोक कवि बोलले, “बिलकुल डरामा वाली.”
“अब कहां हम कलाकार रह गइनी गुरू जी. हँ, पहिले रहीं. दू तीन गो नाटक रेडिअउयो पर हमार आइल रहे.”
“त अब काहें ना जालू रेडियो पर?” लोक कवि तारीफ के स्वर में कहले, “रेडिअउवे पर काहें टी.वी. सीरियलो में जाइल करऽ!”
“कहां गुरु जी?” वह बोली, “अब के पूछी ओहिजा.”
“काहें?”
“फिल्मी गाना गा-गा के फिल्मी कैसेटन पर नाच-नाच के ऐक्टिंग वैक्टिंग भूल-भुला गइल बानी.” वह बोली, “आ फेर एहिजा तुरते-तुरते पइसो मिल जाला आ रेगुलर मिलेला. बाकिर ओहिजा पइसा कब मिली, काम देबहू वालन के मालूम ना रहे. आ पइसा के त अउरियो पता ना रहेला.” ऊ रुकल आर बोलल, “ह, बाकिर लड़िकियन के साथे सुतावे, लिपटावे-चिपटावे के बात सभका मालूम होला.”
“का बेवकूफी के बात करत बाड़ू.” लोक कवि कहले, “कुछ दोसर बात करऽ.”
“काहें बाउर लाग गइल का गुरु जी?” मीनू ठिठोली फोड़त कहलसि.
“काहें नाहीं बाउर लागी?” लोक कवि कहले, “एकर मतलब बा कि जे कहीं अउर बाहर जात होखबू त अइसही हमरो बुराई बतियावत होखबू.”
“अरे नाहीं गुरु जी! राम-राम!” कहि कर ऊ आपन दुनु कान पकड़त बोलल “आप के बारे में एह तरह क बात हम कतहीं ना करीं. हम काहें अइसन बात करब गुरु जी!” ऊ विनम्र होखत कहलसि, “आप हमें आसरा दिहनी गु जी. आ हम एहसान फरामोश ना हईं.” कहिके ऊ हाथ जोड़ के लोक कवि के गोड़ छूवे लागल.
“ठीक बा, ठीक बा!” लोक कवि आश्वस्त होखत कहले, “चलऽ रिहर्सल शुरू करऽ!”
“जी गुरु जी!” कहि के ऊ हारमोनियम अपनी ओरि खींचलसि अउर ओह दोसरकी लड़िकी के, जे थोड़ दूर बइठल रहल, गोहरावत कहलसि,”तूहूं आ जा भई!”
ऊ लड़िकीओ आ गइल त हारमोनियम पर ऊ दुनु गावे लगली सँ, “लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला.” एकरा के दोहरवला का बाद दुसरकी टेर लिहलसि आ मीनू कोरस, “आलू केला खइली त एतना मोटइलीं, दिनवा में खा लेहलीं दू-दू रसगुल्ला, लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला.” फेर दुबारो जब दुनु शुरू कइली सँ इ गाना कि, “लागता जे फाटि जाई जवानी में झुल्ला/आलू केला खइलीं…..” तबहियें लोक कवि दुनु के डपट दिहले, “ई गावत बाड़ू जी तू लोग?” ऊ कहलन, “भजन गावत बाड़ू लोग कि देवी गीत कि गाना?”
“गाना गुरु जी.” दुनु एके साथ बोल पड़ली.
“त एतना स्लो काहें गावत बाड़ू लोग?”
“स्लो ना गुरु जी, टेक ले के नू फास्ट होखब जा!”
“चोप्प साली.” ओ कहलन, “टेक ले के काहें फास्ट होखबू लोग? जानत नइखू कि डबल मीनिंग गाना ह. शुरूवे से एकरा के फास्ट में डालऽ लोग.”
“ठीक बा गुरु जी!” मीनू बोलल, “बस ऊ ढोलक, बैंजो वाला आ जइतं त शुरूवे से फास्ट हो लेतीं सँ. ख़ाली हरमुनिया पर तुरंतै कइसे फास्ट हो जाईं जा?” ऊ दिक्कत बतवलसि.
“ठीक बा, ठीक बा. रिहर्सल चालू राखऽ लोग!” कहिके लोक कवि चेयरमैन साहब के छोड़ल बोतल से पेग बनावे लगले. शराब के चुस्की का साथे गाना के रिहर्सलो पर नजर रखले रहले. तीन चार गाना के रिहर्सल का बीचे ढोलक, गिटार, बैंजो, तबला, ड्रम, झाल वाला सब आ गइले. से सगरी गाना लोक कवि के मन मुताबिक “फास्ट” में फेंट के गावल गइल. एह बीच तीन गो लड़िकी अउरी आ गइली सँ. सजल-धजल, लिपाइल-पोताइल. देखते लोक कवि चहकलन. आ अचानके गाना-बजाना रोकत ऊ लगभग फरमान जारी कर दिहलन, “गाना-बजाना बंद कर के कैसेट लगावऽ जा. अब डांस के रिहर्सल होखी.”
कैसेट बाजे लागल आ लड़िकिया नाचे लगलीं स. साथे-साथ लोको कवि एह डांस में छटके-फुदके लगले. वइसे त लोक कवि मंचों पर छटकत, फुदकत, थिरकत रहले, नाचत रहले. एहिजा फरक अतने भर रहल कि मंच पर ऊ खुद के गावल गाने में छटकत फुदकत नाचसु. बाकिर एहिजा ऊ दलेर मेंहदी के गावल “बोल तररर” गाना वाला बाजत कैसेट पर छटकत फुदकत थिरकत रहले. ना सिरिफ थिरकत रहले बलुक लड़िकियन के कूल्हा, हिप, चेहरा आ छातियन के मूवमेंटो “पकड़-पकड़” के बतावत जात रहलन. एगो फरक इहो रहे कि मंच पर थिरकत घरी माइक का अलावा उनुका एक हाथ में तुलसी के मालो रहत रहे. बाकिर एहिजा उनुका हाथ में ना माइक रहे, ना माला. एहिजा उनुका हाथ में शराब के गिलास रहल जवना के कबो-कबो ऊ अगल बगल का कवनो कुरसी भा कवनो जगहा राख देत रहले, लड़िकियन के कूल्हा, छाती आ हिप्स के मूवमेंट बतावे ख़ातिर. आंख, चेहरा अउर बालन के शिफत बतावे ख़ातिर. लड़िकी त कई गो रहलीं सँ एह डांस रिहर्सल में आ लोक कवि लगभग सगरी पर “मेहरबान” रहले. बाकिर मीनू नाम के लड़िकी पर ऊ ख़ास मेहरबान रहले. जब तब ऊ मूवमेंट्स सिखावत-सिखावत ओकरा के चिपटा लेसु, चूम लेसु, ओकरा बाल ओकरा गाल समेत ओकर “36” वाली हिप ख़ास तौर पर सुहरा देसु. त उहो मादक मुसकान रहि-रहि के फेंक देव. बिलकुल अहसान माने वाला भाव में. जइसे कि लोक कवि ओकर बाल, गाल आ हिप सुहरा के ओकरा पर ख़ास एहसान करत होखसु. आ जब ऊ मदाइल, मीठकस मुसुकान फेंके त ओहमें सिरिफ लोके कवि ना, ओहिजा मौजूद सभे लोग नहा जाव. मीनू दरअसल रहबे अइसन मदाइल कि ऊ मुसुकाव तबहियो. ना मुसुकाव तबहियो लोग ओकरा मदइला में उभ-चूभ होखत डूबिये जाव. मंचों पर कई बेर ओकरा एह मदइला से मार खाइल बाऊ साहब टाइप लोग भा बाँका शोहदन में गोली चले के नौबत आ जाव आ जब ऊ कुछ मादक फिल्मी गानन पर नाचे त सिर फुटव्वल मच जाव. “झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे….” अर्शी हैदराबादी के गावल गजल पर जब ऊ पानी भरल बोतल के “डबल मीनिंग” में हाथ में लिहले मंच से नीचे बइठल लोगन पर पानी उछाले तो बेसी लोग ओह पानी में भींजे खातिर पगला जाव. भलही सर्दी ओह लोग के सनकवले होखे तबो ऊ लोग पगलाइल कूदत भागत आगे आ जाव. कभी-कभार कुछ लोग एह हरकत के बाउरो मान जासु बाकिर जवानी के जोश में आइल लोग त “बल खा के पिएंगे” में बह जाव. बह जाव मीनू के बल खात, धकियावत “हिप मूवमेंट्स” के हिलकोरन मे. बढ़ियाईल नदी का तरे उफनात छातियन का हिमालय में भुला जासु. भुला जासु ओकरा अलसाइल अलकन का जाल में. अउर जे एह पर कवनो केहू टू-टपर करे तो बाँहन के आस्तीन मुड़ जाव. छूरा, कट्टा निकल आवे. पिस्तौल, राइफल तना जाव. फेर दउड़ के आवसु पुलिस वाला, दउड़त आवे कुछ “सभ्य, शरीफ अउर जिम्मेदार लोग” तब जा के ई जवानी के लहर बमुश्किल थथमे. बाकिर “झूमेंगे गजल गाएंगे लहरा के पिएंगे, तुम हमको पिलाओ तो बल खा के पिएंगे…..” के बोखार ना उतरे.


लेखक परिचय

अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.

वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एगो जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह, सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां, प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित, आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.

दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com

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