शशी प्रेमदेव के दुगो गजल

-शशी प्रेमदेव

(एक)

खूब गतरे-गतर फरी केहू
ठूँठ-जस देखि के जरी केहू
रो रहल बा सिवान में कुक्कुर
फेरु टूटी कहर… मरी केहू

का बिरिध का सयान का लरिका
फारि दी लाद ए‘ घरी केहू
दिन-दहाड़े अनेति समरथ के
देखियो ली त‘ का करी केहू

आँखि कमतर कहो त‘ केकरा के
हूर बाटे केहू परी केहू
गून गावत फिरी हिडिम्बा के
पढ़ि के देखे त‘ ‘बनचरी‘ केहू

घूस देके ‘‘शशी‘‘, बिजूका के
हीक भर हरियरी चरी केहू

(दू)

धीरे-धीरे आगा डेग बढ़ावे सीख रहल बानीं
अब हमहूँ जिनगी के थाह लगावे सीख रहल बानीं

हाथ बढ़ाके तरई छूवे के सपना कइसे देखीं
अबहीं तऽ माटी में फूल उगावे सीख रहल बानीं

जहिया से तूँ कहि गइलऽ कि खुश रहिहऽ, तहिये से हम
अपने हाथे अपना के गुदुरावे सीख रहल बानीं

केतनो तीत रहल होखे भा केतनो मीठ रहल होखे
हर बीतल घटना के हम बिसरावे सीख रहल बानीं

अबले जेकरा के डाहल-तड़पावल नीक लगल हमके
अब ओकरे के पुचकारे-बहलावे सीख रहल बानीं

जबसे भान भइल कि दुइए दिन के खेला बा जिनगी
हँसिके हम सबसे बोले-बतियावे सीख रहल बानीं

हम का बीनब रउवा के फाँसे खातिर जंजाल, ‘शशी‘
हम तऽ अपने अझुराहट सझुरावे सीख रहल बानीं

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शशी प्रेमदेव
– प्रवक्ता (अंग्रेजी) कुँवर सिंह इन्टर कॉलेज, बलिया

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(भोजपुरी दिशाबोध के पत्रिका पाती के दिसम्बर 2022 अंक से साभार)

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