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होली के हुड़दंग : लोक साहित्य का संग

Ram Raksha Mishra Vimal

– डा॰ रामरक्षा मिश्र विमल

होली, होरी भा फगुआ जवन कहीं, हटे एकही. साँच पूछीं त हम एह अवसर पर रंग खेलला आ हुड़दंगई के पक्षपाती हईं. जइसे बियाह शादी का अवसर पर मेहरारुन के गारी गावल हमरा बिल्कुल वैज्ञानिक लागेला, ओसहीं फगुआ के रंगोत्सव का पाछा भी हमरा विज्ञान के आहट मिलेला. ई ऊ पर्व हऽ जवना में अवस्था बोध व्यक्ति आ समाज- दूनो का संदर्भ में क्रियाहीन हो जाला आ व्यक्ति में ओकरा ऊर्जा का हिसाब से उछाह लउकेला. एही से त कहल गइल बा – “फागुन में बुढ़वो देवर लागे.”


एक दिन पहिले माने होलिका दहन का दिने घर का हर सदस्य के हरदी आ तेलहन का लेप से पूरा शरीर के मालिश होला आ जवन मइल छूटेले ओकरा के “झीली” कहल जाला. ऊ झिलियो होलिका दहन में जरा दिहल जाले. त्वचा का सतह पर के साधारन रोगन के अतना कम समय में व्यक्ति स्तर से लेके सामाजिक स्तर तक पर मिटा देबे के एह से नीमन योजना का केहू बना सकता ? एकरा के शारीरिक स्वास्थ्य का विज्ञान का नजरिया से भी देखल जा सकऽता. “रंग बरसे भींजे चुनरवाली” जइसन होरी गीतन का पाछा जवन विज्ञान बा ओकरा के मन से जोड़के देखल जा सकता. केहू खूब कहले बा – “जिंदगी जिंदादिली का नाम है / मुर्दादिल खाक जिया करते हैं ?” सोरहो आना सच बा ई. “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत. ” मतलब कवनो जीत में मन के भूमिका जबर्दश्त बा. जीवन में जब रंगन के समावेश होखे तबे ओकर मजा बा, नाहीं त जिनिगी गदहा के लादी हो जाई. रंग प्रेरणा के काम करेला, रंग उत्साह भरेला, रंग उद्दीपन त होइबे करेला, कबो-कबो अपना जबर्दश्त आकर्षण का कारन आलंबन भी बनि जाला. जिनिगी से रंग निकलि जाई त जिनिगी बेरंग हो जाई. बदरंग त खराब होइबे करेला बाकिर बेरंग ओकरो ले आले हो जाला, बेमाने के जिनिगी.

वर्तमान में “रंग” टिप्पणी के खूब शिकार हो रहल बा बाकिर एहमें रंग आ रंगोत्सव के कवनो दोष नइखे. दोष बा हमनी के दरिद्रता के. कम पइसा में सुरक्षित रंग कइसे मिली ? अब केहू का पासे टाइम त अतना बाटे ना कि अपने रंग तइयार कइल जाव आ अतना रुपयो नइखे कि सुरक्षित रंग कीनल जा सको. सस्ता रंग, पोटीन, अलकतरा, गोबर, माटी, पाँकी- कुल्ही एगो विकल्प ह आ एह शैतानी का पाछा दरिद्रता के हाथ बा. अब एकर उपाय कवनो ब्रत, त्योहार का पास थोरे बा ? अपना कॉमन सेंस का हिसाब से सोच के काम कइल जाव त रंगोत्सव सुख आ आनंद के बरखा करी – एह में कवनो संदेह नइखे.

फगुआ

होली का अवसर पर जवन गीत गवाला ओकरे के फगुआ कहल जाला. एकर शुरुआत माघ बसंत पंचमी से मानल जाला. ओही दिन ताल ठोकाला आ तब से भर फागुन गवात रहेला. एकर चरम उत्कर्ष फागुन के पुरनवासी आ चइत के अन्हरिया परिवा के लउकेला. फगुआ से एक दिन पहिले होलिका जरावल जाले जवना के “सम्मत जरावल” कहल जाला.

चाहे लइका होखे भा जवान भा बूढ़, होली में सभ मस्तिए में लउकेला. एह दिन गावे जाएवाली गारिन में अश्लीलता के पुट ढेर होला बाकिर ई भोजपुरी समाज में स्वीकार्य बा. विद्वान लोगन के मान्यता बा कि एकरा पाछा मनोविज्ञान के भूमिका बा. एह गारिन के “कबीरा” आ “जोगीरा” के खास पदन में ढेर देखल जाला.

हुड़दंग

होली के हुड़दंग माने जहाँ गारी आ गीत के अनुपात बराबर होखे. ई सबेरे से शुरू होई त दुपहरिया तक चलत रही रसदार रंग का साथ. फेरु नहा-धो के साँझि खा अबीर-गुलाल लगावे के काम शुरू होई. पहिले देवी देवता के चढ़ावल जाला आ फेरु बड़-बुजुर्ग का चरन पर आ समउमरिया आदि के रूप रंग का साथे खेलवाड़ शुरू हो जाला. एह दिन घर-घर में विशेष पकवान बनेला – पुआ, पूड़ी, गोझिया आदि.

फगुआ समूह में गावल जाला. एक आदमी आगे से उठावेला आ पाछा से पूरा हुजूम दोहरावेला. गीत का गति का साथ गावे के स्वर में भी बढ़ोत्तरी होत जाला, अति उत्साह में लोग बीच-बीच में खड़ो हो जाला आ जब गीत उड़ान पर होला त अचक्के में झम से बंद हो जाला. ढोलक, झाल आ डफ के प्रयोग मुख्य वाद्ययंत्र का रूप में होला. सचमुच ई दृश्य सुने आ देखे में बहुत नीक लागेला.

लोक साहित्य

लोक साहित्य का रूप में वाचिक कविता आधार बाड़ी सन जवन हजारन बरिस पहिले से शुरू होके आजुओ प्रासंगिक बाड़ी सन आ ओकरा प्रति हमनीके सम्मान में आजुओ कवनो कमी नइखे आइल. पार्बती-शिव, राधा-कृष्ण आ सीता-राम के होली सभसे ज्यादा लोकप्रिय बाटे.

आजु सदाशिव खेलत होरी.
जटाजूट में गंग बिराजे, अंग में भस्म रमोरी.
बाहन बैल ललाट चंद्रमा मिरिगछाला अवरू छोरी.
तीनि आँखि सुंदर चमकेला, सरप गले लिपटो री.
….

मुरलीवाले प्यारे, खेलत होरी.
रंग अबीर के धूम मचल बा खेलत संग किशोरी.
….

जहँवा नंदलाल ए ऊधो पाती ले जा.
कथिया के बने रामा कोरा रे कागजवा कथिया के बने मतिझार
अँचरा के फारि-फारि कोरा रे कागजवा नैना बने मतिझार.
….

बृज में हरि होरी मचाई.
इतते आवत नवल राधिका , उतते कुँवर कन्हाई.
हिलि-मिलि फाग परस्पर खेलत शोभा बरनि न जाई.
घरे-घरे बाजत बधाई.
….

कान्हा करे बलजोरी ए मइया कान्हा करे बलजोरी.
जब हम जाईंला पनिया भरन के, देलन मटुकिया फोरी.
चिरवा चोराई मङला पर ना देलन, कतनो करीं हथजोरी.
….

होरी खेले रघुबीरा अवध में होरी खेले रघुबीरा.
केकरा हाथे कनक पिचकारी केकरा हाथे अबीरा.
राम के हाथे कनक पिचकारी सीता के हाथे अबीरा.
अवध में होरी खेले रघुबीरा.
….

सिया झारे लामी केश लछुमन लाइ द ककहिया.

होरी में हनुमानो जी के बीरता के बरनन खूब मिलेला –

अंजनीसुत मेरो मन भाई.
लाल लङूर के का छबि बरनी तेल फुलेल लगाई.
….

पवनतनय आजु होरी मचाई.
बारिधि लाँघि गयो लंका में तरु पर जाइ छिपाई.
ब्याकुल देखि सिया को जबहीं मुद्रिका दीन्हि गिराई.
सिया हिय हरस उठाई.

अंत में “जोगीरा” के भी एगो बानगी देखल जाउ-

जोगीरा सर रर….रर….
फागुन के महीना आइल उड़े रंग गुलाल.
एके रंग में सभे रङाइल लोगवा भइल बेहाल.
जोगीरा सर रर….रर….

एक त चीकन पुरइन पतई, दोसर चीकन घीव.
तीसर चीकन गोरी के जोबना, देखिके ललचे जीव.
जोगीरा सर रर….रर….

संसार के समस्त संस्कृतियन नियन भोजपुरी अंचल के संस्कृति के ई थाती भी वैश्वीकरण के भेंट चढ़ि रहल बिया. पता ना घालमेल के फैशन हमनी के कतना फायदा पहुँचाई, बाकिर अतना बिश्वास जरूर बा कि भोजपुरिहा एह त्रासद घरी में भी आपन रक्षा करे में केहूँ के मुँह ना जोहिहें आ ना मुँह के खइहें.

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