(दयानंद पाण्डेय के लिखल आ प्रकाशित हिन्दी उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद)
चउथा कड़ी में रउरा पढ़ले रहीं कि
दुबे जी जवन खतरा बरीसन पहिले भाँप लिहले रहले ओही खतरा के भँवर अब लोक कवि के लीलत रहुवे. बाकिर बीच-बीच के विदेशी दौरा, कार्यक्रमन के अफरा-तफरी लोक कवि के नजर के अइसे तोपले रहुवे कि ऊ एह खतरनाक भँवर से उबरल त दूर एकरा के देखियो ना सकत रहले. पहिचानो ना पावत रहले. बाकिर ई भँवर लोक कवि के लीलत जात बा, ई उनुकर पुरनका संगी साथी देखत रहले. लेकिन टीम का बहरी हो जाये का डर से ऊ सब लोक कवि से कुछ कहत ना रहले, पीठ पाछा बुदबुदा के रह जासु.
अब ओकरा से आगे पढ़ीं …..
आ लोक कवि ?
लोक कवि अब किसिम-किसिम के लड़िकियन के छाँटे बीने में लागल रहस. पहिले त बस ओकनी के गनवे डबल मीनिंग के डगर थामत रहुवे, अब ओकनी के परोगरामो में डबल मीनिंग डायलाग, कव्वाली मार्का शेरो-शायरी आ कामुक नाचन के बहार रहे. कैसेटवो में ऊ गाना पर कम, लड़िकियन के सेक्सी आवाज भरे पर बेसी मेहनत करे लागल रहले. केहू टोके त कहसु, “एकरा से सेल बढ़ि जाले.” लोक कवि कोरियोग्राफर ना रहले, शायद एह शब्दो के ना जानत रहले. बाकिर कवनो बोल का कवना लाइन पर कतना डाँड़ मटकावे के बा, केतना छाती आ केतना आँखि, अब ऊ ईहो “गुन” लड़िकियन के रिहर्सल करवा-करवा के सिखावत का रहले घुट्टी पियावत रहले. आ बाकायदा कूल्हा, कमर पकड़ि-पकड़ के. गनवो में ऊ लड़िकियन से गायकी के आरोह-अवरोह से बेसी एह पर जोर मारत रहले कि ऊ अपना आवाज के कतना सेक्सी बना सकत रहीं सँ, शोखी से इतरा सकत रही सँ. जेहसे कि लोग मर मिटे. ओकनी के गनवो के बोल अब बेसी “खुल” गइल रहुवे. “अँखिया बता रही है, लूटी कहीं गई हैं” तक ले त गनीमत रहुवे लेकिन ऊ त अउरी आगा बढ़ि जासु, “लाली बता रही है चूसी कहीं गई है” से ले के “साड़ी बता रही है, खींची कहीं गई है” तकले चहुँप जात रहले. एह डबल मीनिंग बोल के इंतिहा एहिजे ना रहुवे. एक बेर फगुआ पहिला तारीख के पड़ल त लोक कवि एकरो ब्यौरा एगो युगल गीत में परोस दिहलन, “पहली को “पे” लूंगा फिर दुसरी को होली खेलूंगा”. फेर सिसिकारी भरि-भरि गावल एह गाना के उनुकर कैसेटो खूब बिकाइल.
नीमन गावे वाली एकाध लड़िकी अइसनका गाना गावे से बाचे का फेर में पड़े त लोक कवि ओकरा के अपना टीम से “आउट” करि देसु. कवनो लड़िकी बेसी कामुक नाच करे में ईफ-बट करे त उहो “आउट” हो जाव. जवन लड़की ई सब कर लेव आ लोक कवि का साथे शराब पी के सूतियो लेव तब त ऊ लड़िकी उनुका टीम के कलाकार ना त बेकार अउर आउट ! एक बेर एगो लड़िकी जवन कामुक डांस बहुते बढ़िया करत रहुवे, पी के बहकि गइल. लोक कवि का बेडरुम में घुसल आ साथ में लोक कवि का बगल में जब एगो अउरी लड़िकी कपड़ा उतारि के लेट गइल त ऊ उचकि के खड़ा हो गइल. लँगटे-उघारे. चिचियाये लागल, “गुरुजी, एहिजा या त ई रहि भा हम.”
“तू दुनु रहबू !” लोको कवि टुन्न रहले बाकिर पुचकारत बोलले.
“ना गुरुजी !” ऊ आपन छितराइल केश आ लँगटा देहि पर कपड़ा बान्हत कहलसि.
“तूँ त जानेलू कि हमार काम एगो लड़की से ना चले !”
“ना गुरुजी, हम एकरा साथे एहिजा ना सूतब. रउरा तय कर लीं कि एहिजा ई रहि कि हम ?”
“एकरा पहिले त तोहरा एतराज ना रहुवे.” लोक कवि ओकर मनुहार करत कहले.
“बाकिर आजु एतराज बा.” ऊ चिचियाइल.
“लागत बा तूं बेसी पी लिहले बाड़ू.” लोक कवि तनी कड़ुवइलन.
“पियवनी त रउरे गुरुजी !” ऊ इतराइल.
“बहक जनि, आ जो !” खीस पियत लोक कवि ओकरा के फेर पुचकरले आ ओठँघल छोड़ उठि के बइठ गइले.
“कह दिहनी नू कि ना !” कपड़ा पहिरत ऊ फेर चिचियाइल.
“त भाग जो एहिजा से !” लोक कवि गँवे से बुदबुदइले.
“पहिले एकरा के भगाईं !” ऊ चहकल, “आजु हम अकेले रहब.”
“ना, एहिजा से अब तूं जा.”
“नीचे बड़ा भीड़ बा गुरुजी.” ऊ बोलल, “फेर सभे समुझी कि गुरुजी भगा दिहलन.”
“भगावत नइखी. नीचे जाके रुखसाना के भेज द.”
“हम ना जाइब.” ऊ फेरु इठलाइल बाकिर लोक कवि ओकरा इठलइला पर पघिरले ना. उलटे उफना पड़लन, “भाग एहिजा से ! तबे से किच्च-पिच्च, भिन-भिन कइले बिया. सगरी दारू उतारि दिहलसि.” ऊ अब पुरा सुर में रहले, “भागऽतारीस कि भगाईं ?”
“जाये दीं गुरुजी !” लोक कवि का दोसरा तरफ सूतल लड़िकी जवन लँगटे-उघारे त रहुवे बाकिर चादर ओढ़ले रहे, बोललसि, “अतना रात में कहवाँ जाई, आ फेर हमहीं जात बानी आ रुखसाना के बोला ले आवत बानी.”
“बड़ हमदर्द बाड़ू एकर ?” लोक कवि ओकरा के तरेरत कहलन, “जा दुनु जानी जा एहिजा से आ तुरते जा.” लोक कवि भन्नात बोलले. तबले पहिले वाली लड़िकी समुझ गइल रहुवे कि गड़बड़ बेसी हो गइल बा. से गुरुजी का गोड़ पर गिर पड़ल. बोललसि, “माफ कर दीं गुरुजी.” ऊ तनी रोआइन होखे के अभिनय कइलसि आ कहलसि,”साचहू चढ़ गइल रहुवे गुरुजी ! माफ कर दीं.”
“त अब उतर गइल ?” लोक कवि सगरी मलाल धो पोँछ के कहले.
“हँ गुरुजी !” लड़िकी बोलल.
“बाकिर हमार दारू त उतर गइल !” लोक कवि सहज होत दोसरकी से कहलन, “चल उठ !” त ऊ लड़िकी सकपकाइल कि कहीं बाहर भागे के ओकर नंबर त ना आ गइल. बाकिर तबहिये लोक कवि ओकर शंका धो दिहले. कहलें, “अरे हऊ शराब के बोतल उठाव.” फेर दोसरकी का तरफ देखले आ कहले,”गिलास पानी ले आवऽ.” ऊ तनिका मुसुकइले, “एकहएक पेग तुहूं लोग ले लऽ. ना त काम कइसे चली ?”
“हम त ना लेब गुरुजी.” ऊ लड़िकी पानी आ गिलास बेड का कगरी राखल मेज पर राखत सरकावत कहलसि.
“चलऽ आधे पेग ले लऽ!” लोक कवि आँख मारत कहले त लड़िकी मान गइल.
लोक कवि खटाखट दू पेग चढ़वले आ टुन्न होखतन ओकरा पहिलही आधा पेग पिये वाली लड़िकी के अपना ओरि खींच लिहले. चूमले चटले आ ओकरा माथा पर हाथ राख के ओकरा के आशीष दिहले आ कहले, “एक दिन तू बहुते बड़ कलाकार बनबू.” आ ओकरा के अपना अँकवारी में भर लिहलन.
लोक कवि का साथे ई आ अइसन घटना रोजमर्रा के बात रहुवे. बदलत रहे त बस लड़िकी भा जगहा. कार्यक्रम चाहे जवने शहर में होखे लोक कवि का साथे अकसर ई सब बिल्कुल अइसही-अइसही ना सही एह भा ओह तरहे से सही, बाकिर अइसनका कुछ हो जरुर जात रहुवे. अकसर त कवनो ना कवनो डांसर उनुका साथे बतौर “पटरानी” रहते रहुवे आ ऊ पटरानी हफ्तो भर के हो सकत रहुवे, एको दिन के भा घंटो भर के. महीना छह महीना भा बरिस दू बरिसो वाली एकाध डांसर भा गायिका बतौर “पटरानी” उनुका टीम में रहली सँ आ ओकनी खातिर लोक कविओ सर्वस्व त ना बाकिर बहुते कुछ लुटा देत रहले.
बात-बेबात !
बीच कार्यक्रमे में ऊ ग्रीन रुम में लड़िकियन के शराब पियावल शुरु कर देसु. कवनो नया लड़िकी आना कानी करे त ओकरा के डपटसि,”शराब ना पियबू त कलाकार कइसे बनबू ?” ऊ उकसावसु आ पुचकारसु,”चलऽ तनिके सा चिख लऽ !” फेर ऊ स्टेज पर से कार्यक्रम पेश क के लवटर लड़िकियन के लिपटा-चिपटा के आशीर्वाद देसु. कवनो लड़िकी पर बहुत खुश हो जासु त ओकर छाती भा चूतड़ दबा खोदिया देस. ऊ कई बेर स्टेजो पर ई आशीर्वाद कार्यक्रम चला देसु. ए फेर कई बेर ऊ बीचे कार्यक्रम में कवनो चेला टाइप आदमी के बोला के बता देसु कि कवन-कवन लड़िकी आजु उपर सूती. कई-कई बेर ऊ दू का बजाय तीन-तीन गो लड़िकियन के उपर सूते के शेड्यूल बता देसु. महीना पन्दरहिया ऊ अपनहू आदिम रुप में आ जासु आ संभोग सुख लूटस. लेकिन अकसरहा उनुका से ई संभव ना बन पावत रहुवे.
कबो-कबो त गजबे हो जाव. का रहे कि लोक कवि का टीम में कभीकदार डांसर लड़िकियन के संख्या बेसी हो जाव आ ओकनी का मुकाबिले जवान कलाकारन भा संगत करे वालन के संख्या कम हो जाव. बाकी पुरुष संगत करे वाला भा गायक अधेड़ भा बूढ़ रहस जिनकर दिलचस्पी गावे बजावे आ हद से हद शराब तक रहत रहे. बाकी सेक्स गेम्स में ना त ऊ अपना के लायक पावसु ना ही लोक कवि का तरह उनकर दिलचस्पी रहे. आ एगो-दू गो जवान कलाकार आखिर कतना लोग के आग बुतावसु भला ? एके-दू गो में ऊ टें बोल जासु. बाकिर लोक कवि के आर्केस्ट्रा टीम के लड़िकी सभ अतना बिगड़ गइल रहुवीं सँ कि गाना बजाना आ मयकशी का बाद देह के भूख ओकनी के पागल बना देव. अधरतिया में ऊ झूमत-बहकत बेधड़क टीम के कवनो मरद से “याचना” कर बईठऽ सँ आ जे बात ना बने त होटल का कमरा में मचलत ऊ बेकल हो जा सँ आ जइसे फरियाद करे लागऽ सँ कि “त कहीं से कवनो मरद बोलवा दऽ!” एह कहला में कुछ शराब, कुछ माहौल, कुछ बिगड़ल आदत, त कुछ देहि के भूख सभकर खुमारी मिलल जुलल रहत रहे. आ अइसन बाति आ जानकारी लोक कवि तक लगभग चहुँपतो ना रहे. अधिकतर टीम के लोगे खुसुर-फुसुर करत रहे. छनाइल बिनाइल बिखरल बाति कबो-कभार लोक कवि तक चहुँप जाव त ऊ खदके लागसु आ ओह लड़िकी के फौरन टीम से “आउट” कर देसु. बहुते कठकरेजी बनि के.
एह सब का बावजूद लोक कवि का टीम में इन्ट्री पावे खातिर लड़िकियन के लाइन लागल रहत रहे. कई बेर ठीक-ठाक पढ़ल-लिखल लड़िकियो एह लाइन में रहत रहीं सँ. गावे के शौकीन कुछ अफसरन के बीबीओ लोग लोक गायक का साथे गावे खातिर छछनात रहे आ लोक कवि का गैराज में मय सिफारिश चहुँप जाव लोग. बाकिर लोक कवि बहुते मुलायमियत से हाथ जोड़ि लेसु. कहसु, “हम हूं अनपढ़ गँवार गवैया. गाँव-गाँव, शहर-शहर घूमत रहीले, नाचत-गावत रहीले. होटल मिल जाव, धर्मशाला मिल जाव, स्कूल, स्टेशन कहवों जगहा मिल जाब त सूत रहीले. कतहीं जगह ना मिले त जीपो मोटर में सूत लिहीले. फेरु हाथ जोड़ के कहसु, “आप सभे हाई-फाई हईं. आपके व्यवस्था हम ना कर पाइब. माफ करीं.”
त लोक कवि अपना आर्केस्ट्रा टीम में अमूमन हाई-फाई किसिम के लड़िकियन, औरतन के एंट्री ना देत रहले. आम तौर पर निम्न मध्यम वर्ग भा निम्ने वर्ग के लड़िकियन के ऊ अपना टीम में एंट्री देसु आ बाद में ओकनी के “हाई-फाई” बता बनवा देसु. पहिले जइसे ऊ अपना पुरान उद्घोषक दुबे जी के परिचय में उनुका डी॰एस॰पी॰ मेहरारू आ आई॰ए॰एस॰ बेटा के बखान जरुर करत रहले, ठीक वइसहीं ऊ अब पढ़ल-लिखल लड़िकियन के परिचय फलां यूनिवर्सिटी से एम॰ए॰ करत बाड़ी, भा बी॰ए॰ पास हई, भा फेर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट, बी॰एस॰सी॰ वगैरह जुमला लगा के करे लगले. बाकिर एह फेर में कुछ कम पढ़ल-लिखल लड़िकियन के “मनोबल” गिरे लागे. त जल्दिये एकरो दवाई लोक कवि खोज निकलले. लड़िकी चाहे कम पढ़ल-लिखल होखे भा बेसी, कवनो लड़िकी के ऊ स्टेज पर ग्रेजुएट से कम ना बतावसु आ ई सब ऊ सायास लेकिन अनायास “अर्थ” में पेश करसु. बाद में ऊ अधिकतर लड़िकियन के कहीं ना कहीं पढ़त बता देस. बतावसु कि “एम॰ए॰ में पढ़ऽतारी बाकिर भोजपुरी में गावे के शौक बा से हमरा संगे आ के गावे के शौक पुरावत बाड़ी. ऊ जोड़सु, “आप सभे इनका के आशीर्वाद दीं.” एहिजा तकले कि ऊ अपना उद्घोषिका लड़िकिओ के खुदे पेश करसु, “लखनऊ यूनिवर्सिटी में बी॰एस॰सी॰ करत बाड़ी…” त उद्घोषिका त साचहू बी॰एस॰सी॰ करत रही लेकिन कुछ शौक, कुछ घर के मजबूरी उनुका के लोक कवि का टीम में हिंदी, अंगरेजी अउर भोजपुरी में एनाउंसिग करे आ जब तब कूल्हा मटकाऊ डांस करे खातिर विवश बना रखले रहुवे. बाद में उनुका अंगरेजी एनाउंसिंग का चलते जब लोक कवि के “मार्केट” बढ़ल त लोक कवि उनुका के कबो एक हजार त कबो डेढ़ हजार रुपिया एक प्रोग्राम के देबे लगले. जबकि बाकी लड़िकियन के पाँच सौ, सात सौ भा बेसी से बेसी एके हजार रुपिया नाइट के दिहल करसु. आ ओही में शामिल रहे नाच-गाना के मशक्कत का बाद कबो-कबो जवन “सेवा सुश्रुषा” करे के पड़े सेहू.
खैर एनाउंसर लड़िकी त साचो पढ़त रहे बाकिर कुछ लड़िकी आठवीं, दसवीं भा बारहवीं तकले पढ़ल रहत रहीं सँ, आ नाहियो रहत रही सँ तबहियो लोक कवि ओकनी के स्टेज पर यूनिवर्सिटी में पढ़त बता देसु. एगो लड़िकी त दसवीं फेल रहे आ ओकर महतारी सब्जी बेचत रहे लेकिन एक समय ऊ जबलपुर यूनिवर्सिटी में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी रह चुकल रहे आ मरद से झगड़ा का बाद जबलपुर शहर आ नौकरी छोड़ के लखनऊ आइल रहे. बाकिर लोक कवि ओह लड़िकी के यूनिवर्सिटी में पढ़त बतावसु आ ओकरा महतारी के जबलपुर यूनिवर्सिटी के रिटायर्ड प्रोफेसर बता देसु त संगी साथी कलाकार सुन के फिस्स से हँस देत रहे. डा॰ हरिवंश राय बच्चन अपना मधुशाला में जइसे कहत रहले कि, “मंदिर मस्जिद बैर बढ़ाते, मेल कराती मधुशाला” कुछ-कुछ ओही तर्ज पर लोको कवि कीहां कलाकारन में हिन्दू-मुस्लिम के भेद खतम हो जाव. कई गो मुसलमान लड़िकियन के ऊ हिन्दू नाम रख दिहले रहुवन आ हिन्दू लड़िकियन के मुस्लिम नाम. आ लड़िकियो सब एकरा के खुशी खुशी मान लेत रहीं सँ. लेकिन तमाम एह सब के लोक कवि का मन में पता ना काहे अपना पिछड़ी जाति के होखे के ग्रन्थि तबहियो बनल रहत रहे. एह ग्रन्थि के तोपे-ढापे खातिर ऊ पिछड़ी जाति के लड़िकियन के नाम का आगा शुक्ला, द्विवेदी, तिवारी, सिंह, चौहान वगैरह जातीय संबोधन एह गरज से जोड़ देसु कि लोग का लागो कि उनुका साथ बड़ो घर के, ऊँचो जाति के लड़िकी नाचे गावेली सँ.
लोक कवि में एने अउरियो बहुते बदलाव आ गइल रहे. कबो एगो कुर्ता पायजामा खातिर तरसे वाला, एक टाइम खाए का जुगाड़ में भटके वाला लोक कवि अब मिनरले वाटर पियत रहले. पानी के बोतल हमेशा उनुका साथ रहे. ऊ लोग से बताइबो करसु कि “खरचा बढ़ि गइल बा. दू तीन सौ रुपिया के त रोज पानिये पी जाइले.” ऊ जोड़सु, “दारू-शारू, खाये-पिये के अरचा अलग बा.” अलग बाति रहे कि अब ऊ भोजन का नाम पर सूप पर बेसी धेयान देत रहले. चिकन सूप, फ्रूट सूप, वेजिटेबि सूप ऊ बोलसु. कई बेर त ऊ शराबो के सूपे बता के पियस-पियावसु. कहसु, “सूप पियला से ताकत बेसी आवेला.” एही बीच लोक कवि एगो एयरकंडीशन कार खरीद लिहले. अब ऊ एही कार से चलसु. बाकायदा ड्राइवर राख के. लेकिन बाद में ऊ अपना ड्राइवर का मनमानी से जब तब परेशानो हो जासु. बाकिर ओकरा के नौकरी से हटाइबो ना करसु. अपना संगी साथियन से कहबो करसु, “तनी आप लोग एकरा के समुझा दीं.”
“आप खुदे काहे नाहीं टाइट कर देते हैं गुरुजी ?” लोग पूछे.
“अरे, ई माली हम राजभर ! का टाइट करब एकरा के.” कहत लोक कवि बेचारगी में जइसे कि धँस जासु.
फेरु अगिला कड़ी में
लेखक परिचय
अपना कहानी आ उपन्यासन का मार्फत लगातार चरचा में रहे वाला दयानंद पांडेय के जन्म ३० जनवरी १९५८ के गोरखपुर जिला के बेदौली गाँव में भइल रहे. हिन्दी में एम॰ए॰ कइला से पहिलही ऊ पत्रकारिता में आ गइले. ३३ साल हो गइल बा उनका पत्रकारिता करत, उनकर उपन्यास आ कहानियन के करीब पंद्रह गो किताब प्रकाशित हो चुकल बा. एह उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं” खातिर उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान उनका के प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित कइले बा आ “एक जीनियस की विवादास्पद मौत” खातिर यशपाल सम्मान से.
वे जो हारे हुये, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाजे, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित), आ सुनील गावस्कर के मशहूर किताब “माई आइडल्स” के हिन्दी अनुवाद “मेरे प्रिय खिलाड़ी” नाम से प्रकाशित. बांसगांव की मुनमुन (उपन्यास) आ हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण) जल्दिये प्रकाशित होखे वाला बा. बाकिर अबही ले भोजपुरी में कवनो किताब प्रकाशित नइखे. बाकिर उनका लेखन में भोजपुरी जनमानस हमेशा मौजूद रहल बा जवना के बानगी बा ई उपन्यास “लोक कवि अब गाते नहीं”.
दयानंद पांडेय जी के संपर्क सूत्र
5/7, डाली बाग, आफिसर्स कॉलोनी, लखनऊ.
मोबाइल नं॰ 09335233424, 09415130127
e-mail : dayanand.pandey@yahoo.com
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