बांसगांव की मुनमुन – 17 वीं कड़ी

बांसगांव की मुनमुन – 17 वीं कड़ी

( दयानन्द पाण्डेय के बहुचर्चित उपन्यास के भोजपुरी अनुवाद )

धारावाहिक कड़ी के सतरहवां परोस
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( पिछला कड़ी में पढ़ले रहीं कि कइसे मुनमुन के ससुर आपन मुँह लिहले बांसगांव से बेइज्जत हो के अपना घरे गइलन. मुनमुन के भाई लोग अपना-अपना ठाँवे. बाकिर का मुनमुन अपना ला कवनो ठांव बना पवलसि. पढ़ लीं.
पिछलका कड़ी अगर ना पढ़ले होखीं त पहिले ओकरा के पढ़ लीं.)

अम्मा तबहियों रोवते रहली. उनुकर देह पहिलहीं हैंगर पर टंगाइल कपड़ा लेखा कृशकाय हो चलल रहुवर आ अब ऊ मनो से थाक गइल रहली. बेटी के दुख उनुका बुढ़ापा पर ठनके जइसन टूट पड़ल रहुवे. मुनमुन फेरु गांव के स्कूल में अपना शिक्षामित्र के नौकरी पर जाए लगली. मुनक्का राय कचहरी जाए लगलन. दुनू के दिन त कट जात रहल बाकिर अम्मा का करसु ? उनुकर दिन कटल मुश्किल हो गइल रहल. ऊपर से आस-पड़ोस के औरत दुपहरिया में आवऽ सँ. बाते बात में पहिले त छोह देखावऽ सॅ मुनमुन के हालात पर. आ फेर ताना मारत पूछ सँ कि, ‘जवना जहान बेटी के अइसे कब ले घरे बइठवले रहब बहिन जी ?’

अब बहिन जी जवाब देती त का से चुपे रह जात रहली. एक दिन एगो पड़ोसन दोसरा पड़ोसन से बतियात रहुवे. मुनमुन के अम्मा के सुनावत बोललसि, ‘बेटा त कुछ भेजऽ सँ ना, वकील साहब के प्रैक्टिस चलत नइखे, हँ बेटी के रोज़गार ज़रूर चलत बा जवना से घर के खरचा पानी निकलत बा.’ ‘रोज़गार’ शब्द पर ओह पड़ोसन के जोर तनिका अधिले रहल. अइसे जइसे सचहूं मुनमुन नौकरी कर के ना, देह के धंधा कर के घर चलावत होखे. एह पर दोसरकी पड़ोसन बोलल, ‘बहिन जी, हमरा हियां त बेटी के कमाई खाइल हराम होखेला, पाप पड़ेला. हम त बेटी के कमाई के पानियो ना छूईं !’

मुनमुन के अम्मा के करेजा छलनी हो गइल. अब मुनमुन के अम्मा के करेजा भलहीं छलनी होखत रहल बाकिर मुनमुन के करेजा गँवे-गँवे टाँठ होखल जात रहुवे. ऊ जान गइल रहल कि अब ओकरा जमाना से लड़े के बा. आ एह लड़ाई ला पहिले अपना आप के बरियार करे के, बेंवतगर करे के होखी. लड़ाई से पहिले अपना के लड़ाई ला तइयार करे के होखी. तबहियें एह पुरुष प्रधान समाज से, एकर बनावल पाखंड से ऊ लड़ पाई. जवन चुटकी भर सेनूर से ओर चाल, ओकर बॉडी लैंगवेज बदल गइल रहल, सबसे पहिले ऊ एही सेनूर के तज दिहलसि. चूड़ी छोड़ कंगन पहिरे लागल. एह पर सबले पहिले अम्मे टोकली, ‘बेटी सुहाग के निशानी अइसे ना छोड़ल जाव. लोग का कही ?’ आ ओकर हाथ अपना हाथ में लेत बोलली, ‘ई डंडा जइसन हाथ नीक नइखे लागत. चलऽ पहिले चूड़ी पहिरऽ, सेनूर लगावऽ.’

‘ना अम्मा ना!’ कहत मुनमुन पूरा सख़्ती से बोललसि, ‘जब हमारे सुहागे हमार ना रहल त ई सुहाग-फुहाग के निशानी आ सेनूर चूड़ी हमरा कवना काम के ? हम अब नइखी पहिरे जात ई बेव़कूफ़ी के चीझु.’

‘ना बेटी! राम-राम!’ मुनमुन के अम्मा मुंह बा के, मुंह पर हाथ राखत बोलली, ‘अइसन अशुभ बात मत बोलऽ अपना मुंह से.’

‘अच्छा अम्मा ई बताव ऊ गांव वाला घर त गिर गइल बा बाकिर ऊ जगहा त बा नू ? हमनी का काहें ना ओहिजे चल के रहल जाव?’ मुनमुन बेधड़क बोलल, ‘आखि़र हमहन के पुरखन के घर रहल ओहिजा !’

‘अब ओहिजा कइसे रहल जाई?’ मुनमुन के अम्मा बोलली, ‘ना छांह, ना सुरक्षा. ना देवाल, ना छत.’

‘बिलकुल अम्मा!’ मुनमुन बोलल, ‘इहे बात, बिलकुल इहे बात हमहूं कहत बानी कि एह चूड़ी, एह सेनूर के ना त कवनो छत बा ना देवाल. ना छांह बा ना सुरक्षा. त हम कइसे आ काहें लगाई एकरा के ? कइसे पहिरीं एकरा के ? जब हमार सुहागे हमरा लायक़ भा हमरा ला ना रहल त ई सुहाग के निशानी हमार कइसे रहल ? हमरा ला कवना काम के रहल ?’

‘एह बातन नें अइसनका तर्क भा मनमानी ना चले.’

‘मत चलत होखे बाकिर हम जानत बानी कि हमरा ला एह सब के ना त कवनो मतलब बा ना मकसद.’

‘बाकिर लोगबाग का कही ?’

‘हम लोग के ठेका ले के नइखीं बईठल. लोग आपन जाने हम आपन जानत बानी.’

‘बाद में पछतईबू बेटी.’

‘बाद में?’ मुनमुन बोललसि, ‘अरे अम्मा हम त अबहियें से पछतात बानी कि काहें ना हम बिआह का पहिलहीं बिगुल बजवनी. जे भईया लोग के शादी से पहिलही तन के बोल देले रहतीं कि पहिले हमरा दुल्हा के जांच पड़ताल ठीक से कर लीं. तब बिआहीं हमरा के ! बाकिर हम त लोकलाज के मारल राहुल भईया से मनुहार करत रह गइनीं. आ ऊ हमरा बिआह में आपन पइसा रुपिया खरच कइले में अपना पर अतना मुग्ध रहलन कि उनुका हमार कहलका सुनइबे ना कइल. हमार मर्म उनुका समुझे में ना आइल. रुपिया खरच कर के ऊ त अइसे खुश रहल जइसे बहिन के बिआह ना कवनो भिखारी का कटोरे में भीख डालत होखे. नीमन बाउर के परवाह कइला बिना. बस इहे सोचत रहल कि एह पुण्य के लाभ ओकरा अगिला जनम में भेंटाई. आ एह जनम में ओकर वाहवाही होखी कि देखऽ त अकेले दम पर बहिन के बिआह ला कतना खरच करत बा. आ नाता-रिश्तेदारी में, पट्टीदारी में ओकर वाहवाही भइबो कइल. बाकिर राहुल भईया ई ना देखसलि कि भिखारी का कटोरा में जवन पइसा ऊ पुण्य ला डालत बा ऊ पइसा मोरी में बहल जात बा, भिखारी का कटोरा में त टिकते नइखे. आन्हर रहल राहुल आ ओकर भिखारी बहिनियो, जे देख ना पवलसि कि कटोरे में छेद बा आ कटोरा मोरी का ऊपर बा!’

‘तोहार भाषण हमरा समुझ का बाहर बा आ हमार बात तोहरा बुझाते नइखे. हे राम हम करीं त का ?’ अम्मा दुनू हाथे आपन कपार पकड़त बोलली.

मुनमुन अब बांसगांव में मशहूर होखे लागल रहुवे. बात-बात में सभका के चुनौती देबे खातिर. ऊ लोग से तर्क पर तर्क करे. लोग कहे ई त बांसगांव के विद्योत्तमा हिय. विद्योत्तमा के विद्वता आ हेकड़ी जवना डाढ़ पर बइठल रहल ओही डाढ़ के काटे वाला मूर्ख कालिदास शास्त्रार्थ में हरा के शादी कर के उतार दिहले रहल. ओही तरह बांसगांव के ई विद्योत्तमा अपना लुक्कड़ आ पियक्कड़ पति का प्रतिरोध में बिआह का बाद अइसे ठाढ़ रहल जइसे कि राधेश्याम आ घनश्यामे ना समूचा पुरुष समाजे ओकर जिनिगी बरबाद कर गइल होखे, सगरी पुरुष समाजे ओकर दुश्मन होखे. मुनमुन अब लगभग पुरुष विरोधी हो चलल रहल. मरदन का तरह बस ऊ माई बहिन के गारी ना दीहल करे बाकिर अउर सबकुछ करे लागल रहुवे.

ओकर संघतियो अब बदल गइल रहल. विवेक का जगह प्रकाश मिश्रा अब ओकर नयका साथी रहल. विवेक अपना मुक़दमे में पइसा-वइसा ख़रच-वरच कर के फ़ाइनल रिपोर्ट लगवा के पासपोर्ट वीजा बनवा के अपना बड़का भाई का लगे थाईलैंड चल गइल रहल. भा कहीं त ओकर बड़का भइये योजनाबना के ओकरा के थाईलैंड बोला लिहले रहलन. एक त मुनमुन का साथे ओकर संबंध, दोसरे, आर्म्स एक्ट में ओकर गिऱफ्तारी, तीसरे बांसगांव के आबोहवा. ओकर भाई सोचलन कि कहींं ओकर जिनिगी मत बरबाद हो जाव से ओकरा के बांसगांव से हटावले श्रेयस्कर लागल रहुवे आ ऊ विवेक के थाईलैंड बोलवा लिहलन.

प्रकाश मिश्रा बांसगांव का लगहीं के एगो गांव के रहुवे. उहो शिक्षा मित्र रहल. शिक्षा मित्र का एगो ट्रेनिंगे में मुनमुन से ओकर परिचय भइल रहुवे. इहे परिचय भेंटघांट के सीढ़ी चढ़त पोढ़ हो गइल रहुवे. हालां कि प्रकाश मिश्रा शादीशुदा रहुवे आ दू गो लइकन के बापो. तबहियों ऊ मुनमुन के हमउमरिये रहल. विवेके का तरह प्रकाश-मुनमुन कथो बांसगांव में लोग जान गइल रहल आ फ़ोन के मार्फ़त मुनमुन के भाइयनो के प्रकाश-मुनमुन के ई कथा के जानकारी मिल गइल रहल, सभ जने कसमसा के रहि गइलन. बाकिर मुनक्का राय आ उनुकर पत्नी एह प्रकाश-मुनमुन कथा के संज्ञान ना लिहलें. लोगन के लाख ज्ञान करवला का बावजूद. बाकिर घनश्याम राय जरुर प्रकाश-मुनमुन कथा के संज्ञान लिहलन आ गंभीरता से लिहलन. ऊ बारी-बारी मुनक्का राय आ मुनमुन राय के फ़ोन क के बाक़ायदा एह पर विरोध जतवलन आ कहलन कि, ‘मुनमुन हमरा घर के इज्ज़त हियऽ, एकरा पर हम कवनो तरह से आंच ना आवे देब !’

मुनक्का राय त चुप रहलन. प्रतिवाद में कुछऊ ना कहलन. त घनश्याम राय उनुका के दुतकारत कहबो कइलन कि, ‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्.’ तबहियों मुनक्का राय चुपे रहलन. बाकिर घनश्याम राय जब मुनमुनो से इहे बात दोहरवलन कि, ‘तूं हमरा घर के ईज्जत हऊ आ हम अपना घर के इज्जत पर आंच ना आवे देंब.’ त मुनमुन राय चुप ना रहलसि. ऊ बेलाग जबाब दिहलसि, ‘त आईं एही आंच में झँउसाईं. काहें कि आंच त आ गइल बा.’

घनश्याम राय के मुनमुन से अइसनका जवाब के उम्मीद हरगिज़ ना रहल. ऊ हकबका गइलन आ रमेश के फ़ोन कइलन. सगरी बात बतवलन आ मुनमुन के जवाबो. रमेशो के ई सब सुन के ठकुआ मार दिहलसि. बाकिर बोललन, ‘घनश्याम जी अब हम का कहीं. माथ तो नवा गइल ई सब सुन के. बाकिर अब कइले का जा सकेला ? कुछ हो सकेला त बस इहे कि रउरा अपना बेटा के सुधारीं आ हमरा बहिन के अपना घरे ले जाईं. इहे एगो रास्ता बा. दोसर हमरा कुछ लउकत नइखे.’

‘इलाज तो हम करवावते बानी बेटा के. डाक्टर के कहना बा कि बहू आ जाव त एकर सुधार जल्दी हो जाई.’

‘देखीं. एह पर हम अबहीं कुछ नइखीं कह सकत.’

‘पर विचार त करिये सकीलेंं !’

‘बिलकुल. ज़रूर.’ रमेश कहलन.

फेर घनश्याम राय के फ़ोन काट के रमेश धीरज के फ़ोन मिलवलन. सगरी हाल बतवलन त धीरज कहलसि कि हँ, ओकरो के बांसगांव से फलनवा के फोन आइल रहल. फेर जब रमेश धीरज कर घनश्याम राय आ मुनमुन के बातचीत, ख़ास क के मुनमुन के जवाब बतवलन कि, ‘त आईं एह आँच में झँउसीं. काहें कि आंच त अब आ गइल बा.’ त धीरज बइखला गइल. बोलल, ‘त भइया अब हमार त बांसगांव से संबंध अब ख़तमे समुझीं आ इहो समुझीं कि मुनमुन अब हमरा ला मर गइल बिया. रउरा जवन कुछ करे के होखो करीं. हम कुछ नइखीं जानत. आखिर एही समाज में रहे के बा. सार्वजनिक जीवन जीए के बा, केकरा-केकरा के का-का सफाई देत फिरब ?’ ऊ बोलल, ‘घनश्याम राउर पुरान मुवक्किल ह, रउरे जानीं. आ भईया हमरा के एह मामिला में कतई माफ कर दीं !’ कह के ऊ फ़ोन काट दिहलसि.

एने मुनमुन आ ओकर आँच बढ़ले जात रहल. ओकरा एह बात के इचिको परवाह ना रहल कि के एह आँच में झँउसा रहल बा आ के एह आँच के तापत बा, भा के एह आंच में आपन रोटी सेंक रहल बा. ऊ त कवनो बढ़ियाइल नदी का तरह बहत रहुवे, जीयत रहुवे, जेकरा आवे के होखो ओकरा बहाव में आवे, किनारा ध लेव, भा डूब जाव. मुनमुन पर एकरा से कवनो फरक पड़े वाला ना रहुवे. एही बीच एगो घटना घट गइल. मुनमुन के आंगन में गेहूं धो के सूखे ला पसारल गइल रहुवे. दुपहरिया में पड़ोसी के बाछा आइल आ बहुते गेंहू चट कर गइल. हमेशा का तरह मुनमुन के अम्मा तब अकेलहीं रहली. जब ऊ देखली त बाछा के हांक के अंगना से बहिरवली आ पड़ोसन से जा के ओरहन दिहली त पड़ोसन ओरहन सुने का जगहा मुनमुन के अम्मा से अझूरा गइली आ ताना मारे लगली. बात बेटन के अनदेखी कइला से लगाइत मुनमुन के चरित्र ले आ गइल. मुनमुन के अम्मा एह पर कड़ेर प्रतिरोध कइली. भला-बुरा कहत कहली कि, ‘आइंदा अइसन कहलू त राख लगा के जीभ खेंच लेब. फेर बोलहूं लायक ना रहबू.’ ई सुनते पड़ोसन लहकि गइल आ अम्मा ओरि झपटल, ‘देखीं कइसे ज़बान खींचत बाड़ू ?’ कहि के ऊ मुनमुन के अम्मा के झोंटा पकड़ के खींच लिहलसि आ जमीन पर गिरा के मारे लागल. कहे लागल, ‘बड़का भारी कलक्टर आ जज के महतारी बनल घूमेले. बेटी कवन गुल खिलावत बिया से नइखे लउकत. आँख पर पट्टी बन्हले बइठल बाड़ी जइसे कुछ मालूमे नइखे. आइल बाड़ी हमार बाछा बन्हवावे. आपन बेटी त बँधात नइखे, हमार बाछा बन्हवइहें !’

एह मार पीट में मुनमुन के अम्मा के मुंह फूट गइले. हाथ गोड़ो में चोट आ गइल. सगरी देह छीला गइल. देह में त वइसहीं दम ना रहल, बुढ़ापा अलग से ! तवना पर ताना आ ई मारपीट. अपमान आ अछरंग से लदाइल मुनमुन के अम्मा बिछवना धर लिहली. साँझि बेरा मुनमुन घरे लवटल त कोहराम मच गइल. मुनमुन से माई के घाव आ तकलीफ़ देखल ना गइल. तमतमात ऊ पड़ोसन का घरे चहुँपल आ पड़ोसन के देखतहीं ना आव देखलसि ना ताव, ना कवनो सवाल ना कवनो जवाब. चप्पल निकाल के तड़ातड़ मारल शुरू कर दिहलसि. झोंटा खींचत पड़ोसन के ज़मीन पर पटकलसि आ घसीटत ले अपना घरे ले खींच ले आइल. कहलसि कि, ‘हमरा माई के गोड़ छू के माफ़ी मांग डायन ना त अबहियं मार डालब तोरा के.’ घबराईल पड़ोसन झट से मुनमुन के अम्मा के गोड़ छू के माफ़ी मंगलसि आ कहलसि कि, ‘माफ़ क दीं बहिना !’ फेर मुनमुन ओकरा के एक लात मरलसि आ कहलसि कि, ‘भाग जो डायन आ फेर कबो हमरा घर ओरि आँखो उठा के देखलू त आँखे नोच लेब.’

मुनक्का राय एही बीचे घर अइलन आ सगरी किस्सा सुनलन त घबरा गइलन. कहलन, ‘अबहियें जब ओकरा घर के लड़िका मरद अइहें स त उहो मार पीट करीहें सँ. का ज़रूरत रहुवे ई मार पीट कइला के ?’

‘कुछ ना बाबू जी. रउरा घवबराईं मत. अबहियें हम ओकरो इंतजाम करत बानी.’ कहि के ऊ एस.डी.एम. बांसगांव के फ़ोन लगवलसि आ रमेश भइया अउर धीरज भइया के रेफरेंस दे के पड़ोस से झगड़ा के डिटेल देत कहलसि कि. ‘जइसे रमेश भइया, धीरज भइया हमार भइया, वइसहीं रउरो हमार भइया, आ हम राउर छोट बहिन भइनीं. हमार इज़्ज़त बचावल आ हमार सुरक्षा कइल राउर धरम भइल. फेर हमरा घर में सिरिफ हम आ हमार बूढ़ माई बापे भर बाड़ें. काइंडली हमहन के सुरक्षा दीं आ बचाईं. हमनी के सम्मान दाँव पर बा.’ ऊ जोड़लसि, ‘आखि़र राउरो माई बाबूजी रउरा होम टाउन भा गाँवे में नू होखीहें. ओह लोगन पर अइसने कुछ गुजरे त का रउरा ओह लोग के मदद ना करब ?’

एस.डी.एम. मुनमुन के बात से कनविंस होखत कहलसि कि, ‘घबराओ नहीं मैं अभी थाने से कहता हूं. फ़ोर्स पहुंच जाएगी.’

आ सचहूं थोड़िके देर में बांसगांव के थानेदार मय फ़ोर्स के आ गइल. मुनमुन से पूरा बात सुनलसि आ पड़ोसी का घरे जा के उनकर माई बहिन करत पूरा परिवार के टाइट कर दिहलसि आ कहलसि कि फेरू कवनो शिकायत मिलल त पूरा घर के उठा के बंद कर देब !’

पड़ोसी के परिवार सकता में आ गइल. पड़ोसन जवाब में कुछ कहे के चहलसि बाकिर थानेदार ‘चौप्प!’ कहि के भद्दा गाली बकलसि आ कुछऊ सुने ला तइयार ना भइल. कहलसि, ‘कलक्टर आ जज के परिवार हऽ. तोहनी के हिम्मत कइसे भइल ओने आंख उठावे के ?’

‘पर सर….!’ पड़ोसन के लड़िका कुछ बोलल चहलसि त थानेदार ओकरो के ‘चौप्प!’ कहि के गरियवलसि आ डपट दिहलसि.

मुनमुन थानेदार से कहलसि कि, ‘कहीं रात में सब ख़ुराफ़ात करीहें स तब ?’

‘कुछ ना करीहें सॅ. रउरा निश्चिन्त रहीं.’ थानेदार बोलल, ‘रात में दू गो सिपाहियन के एहिजा एहतियातन गश्त लगा देत बानी. थोड़-थोड़ देर में आवत-जात रहीहें सँ. घबराए के कवनो जरुरत नइखे.’

फेर मुनमुन सोचलसि कि अम्मा के ले जा के कवनो डाक्टर से देखा दीं. बाकिर सोचलसि कि जे नाहिंयो देखले-जनले होखी उहो अम्मा के घाव देखी, बात पसरी आ बदनामी होखी. से ऊ लगले हाथ थानेदार से कहलसि कि, ‘भइया एगो फ़ेवर रउरा अउर कर देतीं त नीक होखीत.’

‘हँ-हँ बोलीं.’

‘तनिका अपना जीप से कवनो डाक्टर बोलवा के अम्मा के देखा देतीं. वइसे ले जाए, ले आवे में दिक्कत होखी.’ मुनमुन के ई बात सुन के थानेदार तनिका बिदकल त बाकिर चूंकि एस.डी.एम. साहब के सीधा आदेश रहल, जज आ कलक्टर के परिवार रहल से विवशते में सही ऊ ‘बिलकुल-बिलकुल’ कहत जीप में बइठल आ बोलल, ‘अबहियें ले आवत बानी.’

फेर थोड़ देर में ऊ सचहूं एगो डाक्टर के ले के आइल. डाक्टर मुनमुन के अम्मा के जाँच कइलसि. घाव पर मरहम पट्टी कइलसि. ए.टी.एस. के सुई लगवलसि. दरद के दवाई दिहलसि आ बिना कवनो फीस लिहले हाथ जोड़ के थानेदार का साथही जाएन लागल. मुनक्का राय से बोललसि, ‘आ इहो आपने परिवार ह. का पइसा लेबे के बा ? भइया लोगन से कहि के कबो हमार कवनो काम करवा देब. बस !’

आ सचहूं फेर ऊ पड़ोसी परिवार मुनक्का राय के परिवार का ओरि आंख उठा के ना देखलसि. ओहनी के बछवो बन्हाये लागल. मुनुमन के एकरा से बड़हन ताकत मिलल. ऊ समुझ गइल कि प्रशासन में ताक़त बहुते बा. से काहे ना उहो कवनो ना कवनो प्रशासनिक नौकरी ला तइयारी करे. भइया लोग तइयारी कर सकेला, चुना सकेला त उहो काहे ना हो सके ? ऊ एक रात खाना खइला का बाद बाबूजी के मुड़ी पर तेल लगावत ई बात कहबो कइलसि आ जोड़िये दिहलसि कि, ‘आखि़र राउरे खून हईं.’

‘से त ठीक बा बेटी बाकिर भाइयन के पढ़ाई आ तोहरा पढ़ाई में तनिका फरक बा.’

‘का फरक बा ?’ ऊ उखड़ के बोलल.

‘एक त ऊ लोग साइंस स्टूडेंट रहल, दोसरे ओह लोग के इंगलिशो ठीक रहल. तोहरा लगे ना त साइंस बा ना इंगलिश. हाई स्कूले से तोहार पढ़ाई बिना मैथ, इंगलिश आ साइंस से भइल बा. दोसरे तोहार पढ़ाई के अभ्यासो छूट गइल बा. आ फेर प्रशासनिक नौकरी कवनो हलवा पूरी त ना होला. बहुते मेहनत मगजमारी करे के पड़ेला.’

‘ऊ त हम करबे करब बाबूजी.’ मुनमुन बोलल, ‘इंगलिश, साइंस कवनो बपौती ना होखे प्रशासनिक सेवा के. हिंदीओ मीडियम से ओकर तइयारी हो सकेला. हम पता लगा लिहले बानी. रहल बात अंगरेजी के त ओकरो पढ़ाई फेर से करब. बस रउरा अबकी जब अनाज बेचब त तनिका पइसा ओहमें से हमरो ला निकाल लेब.’

‘ऊ काहें ला ?’

‘उहे कोचिंग आ किताबन खातिर.’ मुनमुन बोलल, ‘जब रमेश भइया ओतना लमहर गैप का बाद कंपटीशन कंपलीट क लिहलन त हमहूं कर सकीलें.’

‘अगर अइसने बा त बेटी तूं तइयारी करऽ. अनाज का होला. हम एकरा खातिर खेतो बेच देब, अपनो के बेच देब. पइसा के कमी ना होखे देब. अगर तोहरा मे जज़्बा बा त कुछऊ कर सकेलू. करऽ हम तोहरा साथे बानीं.’ कहते-कहत मुनक्का राय लेटले-लेटल उठ के बइठ गइलन. बेटी के माथा चूम लिहलन आ कहलन कि, ‘तूं कुछ बन जा त हमार सगरी चिंता बिला जाई !’ कहत ऊ अनायास रोवे लगलन. सिसक-सिसक के.

‘मत रोईं बाबू जी.’ मुनमुन बोलल, ‘अब सूत जाईं. सब ठीक हो जाई.’

मुनक्का राय फेर से लेट गइलें. लेटले-लेटल सुबकत रहलें. बाकिर मुनमुन ना रोवलसि. पहिले बात बे बात रोवे वालौ मुनमुन अब रोवल छोड़ दिहले रहुवे.

(एगो उर्दू शेर हवे – खुदी को कर बुलंद इतना कि हर तहरीर से पहले. खुदा बन्दे से खुद पूछे बता तेरी रजा क्या है ! देखल जाव मुनमुन का करत बाड़ी. – अनुवादक)

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