भोजपुरी फिल्मों से भोजपुरी संस्कृति का विलोप

भोजपुरी फिल्मों से अब भोजपुरी संस्कृति का लगभग विलोप हो चूका है, थोड़ी बहुत आस बची है की शायद फिर से कोई चमत्कार इसे वापस खींचने में कामयाब होगा, पर इसके आसार बहुत कम दीखते हैं, अब तो खंती भोजपुरी भाषा भी फिल्मों में नहीं इस्तेमाल हो रही है बाकी की तो बात भी बेमानी है, ना किसी फिल्म में विश्व प्रसिद्द गोइंठा, ढेंका, जांता देखा जाता है , न ही कोई दरवाजे पर सुबह सुबह गाय भैंस को चारा पानी देते लुंगी गंजी में दीखता है, न ही इनकी बात करता है , गांवों में फिल्म शूटिंग करने के बजाये लोग फार्म हॉउस में शूटिंग करने लगे हैं, भोजपुरिया लोगों के बीच जाकर फ़िल्में बनाने के बजाये लोग भाड़े पर भीड़ इक्कट्ठा कर के फ़िल्में बनाने लगे हैं, पहले लोग लुंगी पहनकर पैदल बाज़ार जाते थे इनकी जगह अब आपको है हाई प्रोफाईल जींस पैंट में मोटर साईकिल पर घूमते दिखाया जा रहा है , कुछ लोगों ने फिल्म को सिर्फ व्यावसायिक नजरिये से देखना भी शुरू कर दिया है, उन्हें भोजपुरी संस्कृति से कुछ लेना देना नहीं रह गया है, वो सिर्फ और सिर्फ पैसा कमाना चाहते हैं और कुछ नहीं .कुछ लोग अभी भी जमीन से जुड़े रहना चाहते हैं मगर उन्हें सही प्रोत्साहन देने वाला कोई नहीं है, कोई भी निर्माता निर्देशक गावों में जाकर ऑडिशन नहीं करता बल्कि यहाँ सिर्फ सिफारिश वालों को काम दे देना ही उनका धर्म और पेशा बन गया है ,इनके पीछे इनकी एक खास मज़बूरी भी हो सकती है फिल्म वितरकों के रवैये , ये लोग नए लोगों की फ़िल्में तो खरीदकर चलाना , नए लोगों को प्रोमोट करना तो जैसे पाप ही समझते है , फिर मारधाड़ नहीं होने और बड़ा नाम नहीं होने की दुहाई देकर प्रतिभा सामने आने से पहले ही उसे कुचल देते हैं अगर आप किसी नए कलाकार को लेकर ठेठ भोजपुरी फिल्म बना भी लेते हैं तो निश्चित ही आपकी फिल्म नहीं बिकेगी , चाहे आप उसमें कूट कूट कर भोजपुरी पाना क्यूँ नहीं भरे हों, सांस्कृतिक फिल्मों का बाजार इन तथाकथित बड़े निर्माता निर्देशकों ने तो लगभग बंद ही कर दिया है, अबकी भोजपुरी फिल्मों में ना ही आपको कोई आम छु खेलते हुए दिखेगा और ना ही कोई पेंड पर चढ़कर दतुवन तोड़ते हुए , सबके सब अपने आपको नए परिवेश के नाम पर बिकने वाली घटित पाश्चात्य सभ्यता को अपना लिया है ,, भोजपुरी फिल्मों में अभिनेत्रिओं के पहनावे की और जरा ध्यान दीजिये तो लगेगा की आप कहीं गलत जगह आ गए हैं , दुपट्टा का तो नामों निशाँ नहीं के बराबर मिलेगा , ब्लाउज की जगह चोली उसमें से भी आधे बाहर झांकते उनके बदन , एक दुसरे को लुभाने की प्रवृति ,भगवान् ही मालिक हैं इन्सभी को सही करने के लिए ,, आज के तारीख में आलम यह है की लगभग ८० % भोजपुरी फ़िल्में भोजपुरिया संस्कृति के परिवेश के बगैर और भोजपुरिया समाज से सैकड़ों मील दूर फिल्माईं जा रही हैं ,, आज के तारीख में भोजपुरी फिल्मों को बनाने के लिए सैकड़ों कहानियाँ हमारे गाँव घर में रोज घटित हो रही हैं , मगर ये लोग उन घटनाओं पर फिल्म न बनाकर मनगढ़ंत काल्पनिक कहानियों पर ही ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं,


(स्रोत – संजय भूषण पटियाला)

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