बतकुच्चन – ४३


महुआ बीनत लछमिनिया के देखनी, हर जोतत महिपाल, टिकठी चढ़ल अमर के देखनी, सबले नीमन ठठपाल ! नाम कई बेर सार्थक ना हो पावे आ नामित आदमी भा संस्था भा चीझु नाम का हिसाब से ना चलि पावे. बाकिर एकर मतलब इहो ना होला कि नाम हमेशा गलते होखेला. कई बेर नाम पूरा सार्थक हो जाला. एगो भोजपुरी कहाउत ह कि “बाप के नाम साग पात बेटा के नाम परोरा” ! ई तब कहाला जब बेटा बाप से कई मामिला में आगा निकल जाला. बाकिर तबहियो “बापे पूत परापत घोड़ा बहुत नहीं त थोड़ा थोड़ा” वाला कहाउत एकदमे गलत ना हो जाव. अइसहीं संस्कृत के तृण के दुनिया में बहुते रूप देखे के मिलेला. दूबो एक तरह के घास ह त बाँसो घासे ह. आ सबले बड़की बात कि मूंजो घासे के एगो प्रजाति हऽ. अब देखीं तृण के तीन गो रूप त अतने में लउक गइल बाकिर हमार मकसद तृण के चरचा करे के कम मूंज के चरचा करे के बेसी बा आजु. मूंज अइसन घास होले जवना के जानवरो ना खासु आ एह चलते ऊ पसरत बढ़त चलि जाला जहाँ मौका मिले. बाकिर मूंज एकदम से बेकारो घास, भा तृण, ना ह. मूंज के कई तरह से इस्तेमाल होला. मूंज के रसरी बनेला, मूंज से पलानि छवाला जवना तरे गरीब गुरबा अपना के सुरक्षित राखेले बरखा पानी से. जेकरा लगे औकात बा से त मूंज से छवला का बाद ओहपर नरिया खपड़ा राखि देला. बाहरो से सुंदर आ भितरो से सुरक्षित, आरामदेह. बाकिर जे लोग मूंज से काम करेला ओकरा के इस्तेमाल करेला, ओह लोग के तनी सावधानो रहे के पड़ेला. मूंज हवे त तृण भा घास बाकिर ओकर कोर किनारी अतना धारदार होला कि तनी मनी गफलत होखते राउर हाथ काट के राख दी. तब पता ना चली कि घासो अतना चोख कइसे हो सकेला बाकिर पूछीं उनुका से जिनकर हाथ मूंज नाम के तृण से कटा गइल होखे. आ उनुकर हालत वइसन हो गइल होखे कि बुझाव ना कि का करीं, काहे कि एह कैच ट्वेंटी टू में “उगिलत आन्हर, निगलत कोढ़ी” के दुविधा बनि जाला. आ तब एगो दोसर भोजपुरी कहाउत याद आ जाला कि “पड़लन राम कुकुर का फेरा खीचि खाँचि ले गइलसि खाला.” हम त आराम से बतकुच्चन करे में लागल बानी बाकिर पूछीं उनुका से जिनका खातिर एगो अउरी कहाउत कहल जाला, “बुझेला चिलम जवना पर चढ़ेले अंगारी.” अब चलत चलत एके गो बात कहब कि हमरा कवनो बाति के राजनीतिक मतलब मत निकाली सभें. बाकिर आगा राउर मरजी !

0 Comments

Submit a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *